राजेन्द्र यादव रचनावली अर्चना वर्मा, 2016

राजेन्द्र रचनावली लोकार्पण के अवसर पर मेरा वक्तव्य। यह रचनावली के आरंभ में 'भूमिका के बदले' शीर्षक से शामिल भी है –

राजेन्द्र यादव ने जब मुझको अपनी रचनावली के सम्पादन का जिम्मा सौंपा तो मजाक मेँ मैने कुछ इस आशय की बात कही थी, बाकी दुनिया मेँ 'रचना-समग्र' के प्रकाशन का औचित्य रचनाकार के 'सम्पूर्ण' हो जाने में होता है। लेकिन अपनी हिन्दी मेँ चलन कुछ उलट गया है।

जाहिर है, जिन शब्दों मेँ यह बात लिखी जा रही है, कहन की भाषा उससे अलग थी। न इतनी शालीन और न इतनी लगभग अव्यक्त जैसी अस्पष्ट। आदमी का 'सम्पूर्ण' हो जाना 'प्रस्थान' और 'उपरान्त' जैसे संकेत रखता है। इधर आदमी पूरा हुआ, उधर उसकी रचना समग्र हुई। इसके पहले तक क्या सम्पूर्ण, और कैसा समग्र।

राजेन्द्र यादव ने अपना मशहूर ठहाका लगाया था – मेरे सामने के कल-कल के छोकरों के समग्र-सम्पूर्ण प्रकाशित हो रहे हैं, उनसे तो मै ज़्यादा 'क्वालीफ़ाइड' हूँ,।

उनकी सम्पूर्ण कहानियों के संकलन के नामकरण के समय भी इस आशय की चर्चा हुई थी। वे एक बहुत अनौपचारिक, आत्मीय से नाम की तलाश मेँ थे। उसके पहले मोहन राकेश की सम्पूर्ण कहानियाँ 'सब एक जगह' के नाम से आ चुकी थीं। वह नाम उनको लुभा रहा था लेकिन इस्तेमाल किया जा चुका था इसलिये उनके काम का नहीं था। उपयुक्त भी नहीं था। मोहन राकेश की कहानियों के बारे 'सब एक जगह' कहना उचित माना जा सकता था, वह मरणोपरान्त संकलन था। राजेन्द्र जी भले ही तब तक पूर्णकालिक सम्पादक हो चुके थे, और उस वक्त तक 'न लिखने का कारण' जैसी विषयवस्तु के सामाजिक इत्यादि सूत्रों पर विचार कर रहे थे, अपने समसामयिक अन्य अनेक पीढ़ियों के रचनाकारों की कभी कभी वास्तविक नासमझी लेकिन अक्सर असहिष्णुता और विद्वेष आदि के कारण भी इस किस्म के आरोपों का सामना कर रहे थे कि एक खुद चुका हुआ लेखक अपनी रचनात्मक असमर्थता को बाकी सारी रचनाकार बिरादरी के माथे मढ़ रहा है। लेकिन हर चीज़ के बावजूद रचने की संभावना अभी शेष थी। अभी 'हंस' का उन ऊँचाइयों तक पहुँचना भी बाकी था जो 'न लिखने के कारणों' की भरपाई कर देता।

और सचमुच उस तब तक के 'सम्पूर्ण' के संकलन के बाद उनके दो और कहानी-संग्रह आये भी। अपने उस सम्पूर्ण संकलन का एक सुन्दर और सार्थक नाम उन्होंने 'यहाँ-तक' रखा था और उसके दो खण्डों का शीर्षक पड़ाव–एक और पड़ाव–दो थे। यानी इस बात का स्वीकार कि यात्रा अभी बाकी है।

सब एक जगह

अब वह याद कसकती है लेकिन अब सही वक्त है 'सब एक जगह' का। केवल कहानियों का नहीं, रचना-समग्र का।

लगभग एक मुहावरे की तरह बोलते हैं लोग, 'ऑल मीन्स ऑल' याकि 'सब माने सब।' बेलाग, बेबाक 'सब'। लेकिन 'सब' के दर-अस्ल 'सब' होने का मतलब क्या है? आदर्श रूप से तो जिसकी रचनावली है, क्या उसका लिखा हुआ एक एक शब्द? शायद हाँ।

लेकिन राजेन्द्र यादव जैसे 'लिक्खाड़' लेखक का 'सब!'

औपचारिक रूप से अब तक प्रकाशित सृजन, आलोचना, विमर्श के अलावा बाकी वह 'सब' भी जिसमें उनकी पीछे छूटी हुई फ़ाइलों में छोटी छोटी पर्चियों-पुर्जियों में मतलब-बेमतलब टीका-टीपें-टिप्पणियाँ, अनौपचारिक से औपचारिक तक के विविध वैविध्यों में अधूरी शुरुआतें, बिना शुरू या अन्त वाले अनुच्छेद, परिचितों से लेकर अपरिचित पाठकों तक के नाम चिट्ठी-पत्री, जन्मदिन वगैरह जैसे अवसरों पर बिटिया के कच्चे अक्षरों में अनगढ़ सन्देश और पता नहीं क्या क्या तक बेसंभाल, बेतरतीब लेकिन यूँ सहेजे हुए काग़जों में सँभला रखा है मानो कोई पुर्जा-पर्चा कभी फेंका ही न गया हो।

रचनात्मक स्वभाव की सामान्यतः पहली निशानी है, नशे या लत की हद तक पहुँची हुई सी, दर्ज करते चलने की आदत – घटित और अनुभूत की स्मृतियों या स्मृतिचिह्नों का संचय जो उसे पुनर्जीवित करने में मददगार हो। और अगर जो कहीं पूर्णकालिक लेखन को बाकायदा एक 'प्रोफ़ेशन' की तरह स्वीकार किया गया हो तो शायद कागज़-पत्तर के संचय की ऐसी पहरेदारी 'प्रोफ़ेशनल डेडिकेशन ऐण्ड एफ़ीशियेन्सी' यानी व्यावसायिक प्रतिबद्धता और कौशल का पर्याय भी बन जाती है। खुद अपने बॉस की हैसियत से स्टॉक-टेकिंग' के लिये कर्मचारी की हैसियत से खुद को पेश करते समय ये कागज़ पत्तर अपने व्यस्त और कार्यरत – एक ईमानदार कामगार होने का प्रमाण साबित होते हैं, अपने किये धरे का कच्चा चिट्ठा, जिसका पक्का खाता बनना अभी बाकी है। इस तरह 'सेल्फ़ इम्प्लॉयड' एक लेखक की कहानी सुनी थी, राजेन्द्र जी से ही, जो बाकायदा काम के घण्टों के हिसाब से लिखने की मेज़ पर बैठते थे, काम से छुट्टी के लिये बाकायदा बॉस-खुद को अर्जी देते थे और कर्मचारी-खुद की अर्जी मंजूर या नामंजूर करते थे; अपेक्षित व प्रत्याशित 'उत्पादन' में कोताही पर सज़ा भी देते थे – मित्रों से मुलाकात मुल्तवी या फिर प्रेमिका के साथ सैर मन्सूख। पता नहीं वे सचमुच के ऐसे किसी लेखक की बात कर रहे थे या अपने ही वास्तविक या आकांक्षित या कल्पित टाइम-टेबिल की। काम के निश्चिेत घण्टे और अपेक्षित 'आउटपुट' की शर्तों का नतीजा भाषा के लगातार ऐसे भी सृजन में होता है जो चाहे तात्कालिक इस्तेमाल का न हो या चल रही रचना की प्रक्रिया मेँ सम्पादित करके निकाल दिया गया हो लेकिन अपने लिखे के मोहवश फेंकते न बना हो या इतना सार्थक या संकेतपूर्ण सा प्रतीत हो रहा हो कि आगे किसी काम आ जाने की संभावनावश बचा लिया गया हो। 'लिखित' का ढेर इससे भले ही बढ़ता है लेकिन उसके बहुतांश का सिर-पैर सिर्फ़ लेखक की ही समझ के बस की बात होती है और बहुत बार तो शायद उसकी भी समझ के बाहर। हमारे सामने मौजूद ऐसी सामग्री के सिलसिले मेँ सम्पादक-द्वय को अपनी सीमित समझ और नाकाफ़ी निर्णय-क्षमता की कसौटी पर चुनाव करना अनिवार्य था।

क्लासिकल विश्व -साहित्य में शेक्सपीयर तथा उस कोटि के रचनाकारों के समग्र-संकलन के सन्दर्भ में एक एक शब्द को सकेलना-सँभालना एक पवित्रता-मण्डित काम बन चुका है। सदियों के अन्तराल में कहीं छिपी-छूटी रह गयी किसी रचना का मिल जाना ऐसी हलचल का कारण होता है मानो खुदाई में अचानक कोई ऐतिहासिक 'साइट' निकल आई हो। शायद उसीके अहसास की छाया में रचना-समग्र के संकलन की एक एक शब्द वाली अलिखित आचरण-संहिता का आभास इर्द-गिर्द मँडराता सा रहा। लेकिन अभी इस प्रथम प्रयास में उसका अनुगमन असम्भव है और शायद काम्य भी नहीं।

ऊपर उल्लिखित जिस सामग्री का जिक्र किया गया है वह तो उनकी बच रही फ़ाइलों के कागजों की खोज-खखोल मेँ उपरान्त-आविष्कार का नतीजा है। उसके अलावा भी जो सामग्री "अब तक अप्रकाशित" के नाम से राजेन्द्र जी ने हमारे हवाले की थी उसमें बड़ा हिस्सा उनके 'डायरी साहित्य' का था और उसे हमारे हवाले करते समय उन्होंने अलग अलग वक्तों पर ज़िक्र किया था अपने अचानक असुरक्षित और अनावृत्त हो उठने के अहसास का और मेरे चयन-विवेक और ईमानदारी पर भरोसा जताया था कि मैं उनके विश्वानस की रक्षा करूँगी। अलग अलग स्रोतों से अलग अलग वक्तों पर पता चलता रहा कि वे परिचित मण्डली को इस तरह अपनी ज़िन्दग़ी के स्याह-सफ़ेद का कच्चा चिट्ठा मेरे हवाले कर देने के बारे में सूचित भी करते रहे। शायद उन्हीं सूचनाओं के भरोसे उनके जाने के बाद हिन्दी-जगत के अनेक संपादकों ने उस अप्रकाशित सामग्री में से कुछ छापने के लिये माँगा और डायरी के अंशों के बारे मेँ विशेष रुचि भी जताई।

लेकिन यहाँ मैँ उन सारे उत्सुक कौतूहलों के लाभार्थ दर्ज कर देना चाहती हूँ कि उनकी जिज्ञासा को शान्त करने लायक कोई 'विशेष' सामग्री उन्हें यहाँ नहीं मिलेगी। इसलिये नहीं कि सम्पादन के क्रम में काटछाँट कर उसे निकाल दिया गया है बल्कि इसलिये कि जो साज-सामान राजेन्द्र जी ने हमारे हवाले किया, उसमे ऐसी कोई सामग्री नहीं थी। या तो ऐसी कोई सामग्री कहीं थी ही नहीं, या फिर उन्होंने स्वयं अपने चयन-विवेक का व्यायाम करते हुए उसे हमारे हवाले नहीं किया था और इस तरह हमें चयन और निर्णय की उन दुविधाओं से बचा लिया जो सम्पादन के क्रम में हमारे सामने आई होतीं।

आरंभिक वर्षों (1948-49) की डायरी का बहुत सा हिस्सा केवल रोज़मर्रा का ढर्रा या दैनन्दिन चर्या को दर्ज करने मेँ खर्च किया गया है। बहुत सा क्या, लगभग सब का सब। उन पीले पड़े, चुरमुरे काग़जों की धुली-धुधली सी देखने में सुडौल पर पढ़ने मेँ कठिन, काग़ज़ के हर सिरे तक ठूँस ठूँस कर भरी हुई लिखावट को 'मैग्नीफ़ाइंग ग्लास' के सहारे भी आंख गड़ा कर पढ़ते हुए भी मै साहित्यिक रुचि के काम का केवल वह यात्रा वृत्तान्त निकाल पाई जो उन्होंने रामविलास शर्मा और अमृतलाल नागर की संगत में की गयी केरल-कन्याकुमारी की यात्रा के विषय में दर्ज किया है। एक बाकायदा लेखक की डायरी सन 1958 से शुरू होती है और अन्त तक आती है, और वह मात्र दैनन्दिनी नहीं है। वह न केवल साहित्यिक रुचि बल्कि ज़रूरत के भी काम की चीज़ है।

उन डायरियों में रोज़ाना की तारीखवार जबरन दर्ज की हुई टिप्पणियाँ नहीं हैं, केवल जब ज़रूरी कुछ महसूस किया तब। बीच के खाली पड़े पन्नों को तरह तरह के कामों के लिये इस्तेमाल किया गया है जिनका जायज़ा आपको पीछे की एक टिप्पणी में मिल चुका है। फिर 'हंस' के शुरू हो जाने के बाद तो सम्पादकीय और डायरियाँ एक दूसरे में गुँथे उलझे, लिखावट का ऐसा जंगल बन गये हैँ कि प्रकाशन के पहले दोनो को अलग अलग निकालना भी एक काम था।

इन डायरियों को कालक्रम से कैटेलॉग करने का, हर डायरी में जो डायरी के अतिरिक्त था उसकी विषयानुसार सूची बनाने का , जंगल को छाँटने, सुलझाने, व्यवस्थित करने का काम बलवन्त ने किया है। सम्पादन में सलाह, सुझाव, निर्देशन, सुपरविज़न की कार्यान्विति का पक्ष यही होता है, समय-साध्य और श्रम-साध्य। बलवन्त ने बहुत कुशलता से निभाया।

लगभग अप्रकाशित सामग्री में प्रमुख उनके कुछ पूरे-अधूरे उपन्यास हैँ – 'भूत,' 'नेपथ्य', 'भुतहा मकान' और 'उधार की ज़िन्दगी'। कुछ पन्ने व्यवस्थित ढंग से रचना का पूरा या अधूरा रूप अख्त्यार कर चुके दिखाई दिये। इनमें से कुछ – 'नेपथ्य' और 'भूत' – राजेन्द्र जी ने खुद ही निकाल कर दिये थे, बाकी उनके काग़ज़ों और डायरियों में मिले। इन्हें 'लगभग' अप्रकाशित कहने का कारण यह है कि इनमें से दो का प्रकाशन पुस्तकाकार तो नहीं हुआ लेकिन वे पत्रिकाओं मेँ छप चुके हैँ – 'पाखी' मेँ 'नेपथ्य' और 'दृश्याहन्तर' मेँ 'भूत'। इसलिये शब्दशः ऐसा नहीं कहा जा सकता कि वे रचनावली में ही पहली बार सामने आ रहे हैं। 'भुतहा मकान' और 'उधार की ज़िन्दग़ी' का ज़रूर यह प्रथम प्रकाशन है।

इस समग्र संकलन मेँ समस्याजनक थे 'हंस' के सम्पादकीय। 1986 अगस्त से लेकर 2013 अक्तूबर तक के सत्ताइस साल दो महीने, हर साल के बारह अंक, हर अंक मेँ एक सम्पादकीय के अमूमन आठ से दस पृष्ठ। उनके समेत इतना सब एक जगह संकलित करने का मतलब पाँच पाँच सौ पृष्ठों के लगभग पच्चीस खण्ड। यथोचित मूल्य, मार्केटिंग, हैण्डलिंग, पैकेजिंग – सभी दृष्टियोँ से बेसँभाल। जाहिर है, ऐसी हालत में रचनावली में सम्मिलित करने के लिये 'सब' को सीमित करना भी ज़रूरी हो जाता है। इसलिये फ़िलहाल अपने दिमाग़ मेँ ग्रन्थावली और रचनावली में एक पारिभाषिक किस्म का बारीक सा अन्तर कायम रखते हुए हम अभी इसे उनकी रचनावली ही बना रहे हैँ, यानी रचना और आलोचना मिलाकर उनके साहित्यिक अवदान के पन्द्रह खण्ड।

इन्ही पन्द्रह खण्डों का और उनके पेपरबैक संस्करण का लोकार्पण कल 13.8.2016 को हुआ।

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