डा. दुर्गाप्रसाद अग्रवाल का लेखन कल्पना का हिंदी लेखन

बीच में अंग्रेज़ी

मूल: बरखा दत्त अनुवाद: डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल

हिन्दुस्तान टाइम्स से साभार

पत्रकारिता की एक बेहद कष्टदायक लेकिन ज़रूरी विशेषता यह है कि कभी-कभी आपका काम ही आपको अपनी ज़िन्दगी के सामने आईना लेकर खड़ा कर देता है. पिछले सप्ताह एक शांत लेकिन दृढ़ निश्चयी 16 वर्षीया युवती ने अचानक ही मेरी शिक्षा को आईना दिखा दिया. मैंने सदा ही यह माना है कि मेरे स्कूल व कॉलेज के वर्ष मेरे व्यक्तित्व के प्रारम्भिक निर्माता थे. हर मध्यवर्गीय भारतीय की तरह मैंने जहां पढ़ाई की और जो मुझे पढ़ाया गया उस पर गर्व किया है. तथापि, इस युवा लड़की के विनम्र आदर्शवाद ने मुझे ठहरकर सोचने को विवश कर दिया है: क्या मेरी पब्लिक स्कूल की शिक्षा शर्मनाक रूप से अभिजातवर्गीय थी? पहली नज़र में वृत्तांत सीधा सादा था. विस्मयकारी 97.6% अंकों वाली सीबीएसई (CBSE) की टॉपर गरिमा गोदारा ने अपने गांव के सबसे नज़दीक के दिल्ली पब्लिक स्कूल, द्वारका के लिए प्रवेश परीक्षा दी. 6000/- प्रतिमाह से भी कम पानेवाले पुलिस के सिपाही, उसके पिता के लिए इस स्कूल की फीस बड़ी समस्या रही होगी. लेकिन परिवार अविचलित था. छात्रवृत्ति या ऋण की आस थी. निश्चय ही स्कूल भी ऐसी छात्रा को प्रवेश देना ही चाहेगा जिसने राष्ट्रीय राजधानी की योग्यता सूची में शीर्ष स्थान प्राप्त किया है. गरिमा के पिता ने अपने बुज़ुर्गों की संस्थापित पितृसत्तात्मकता और उन ताकू-झांकू पड़ौसियों से जूझने में महीनों खपाये थे जो यह बकवास करते थे कि लड़की रसोई में काम क्यों नहीं करती. अपनी बेटी को उसके प्राप्तांकों के अनुरूप शिक्षा दिलाने का उनका इरादा और भी मज़बूत होता गया था.

यह नए भारत और इसके स्व-निर्मित मध्य वर्ग का एक आख्यान हो सकता था. सपने देखने का दुस्साहस करने वाले देश का एक गर्व भरा संगे-मील हो सकता था.

लेकिन इसकी बजाय हुआ यह: डीपीएस (DPS) ने उसे मना कर दिया. ठीक है, परिणाम अच्छा है! लेकिन जैसा स्कूल के प्रिंसिपल ने एनडीटीवी (NDTV) से कहा, अंक ही तो सब कुछ नहीं होते. फिर, इसकी तो अंग्रेज़ी भी अच्छी नहीं है.

बाद में, स्टूडियो में गरिमा को सुनते हुए, क्रुद्ध या विचलित न होना मुश्किल था. ज़ाहिर अन्याय के कारण क्रुद्ध. वह अपने परिणाम के अनुरूप ही मेधावी थी; और जैसी अंग्रेज़ी वह बोल रही थी उससे स्पष्ट था कि वह पाठ्यक्रम को समझ पाने में पूरी तरह सक्षम थी. हां, उसके उच्चारण में ज़रूर क्षेत्रीय स्पर्श था जिसके कारण कुछ लोग उसे पर्याप्त रूप से परिष्कृत मानने में संकोच कर सकते हैं. लेकिन इसमें कोई सन्देह नहीं कि वह न केवल जटिल विमर्श को समझ सकती थी, उसका बोला हुआ किसी भी अंग्रेज़ी वक्ता की समझ में भी आ सकता था.

उसका शांत भाव हृदय विदारक था. एक मौन साहस था जो उसकी किशोरावस्था के क़तई अनुरूप नहीं था. लगभग ऐसा लग रहा था मानो उसकी तुलना में हम ही अधिक अपमानित और क्रुद्ध थे. कार्यक्रम के बीच देहरादून के एक सुपरिचित स्कूल के प्रिंसिपल ने फोन कर उसे छात्रवृत्ति सहित प्रवेश देने की पेशकश की तो अन्यों ने डीपीएस का निर्णय बदलवाने के वादे किये. लेकिन आहत होने का किंचित भी आभास दिये बगैर उसने दृढ़ता से कहा कि अब तो उसका लक्ष्य डीपीएस को यह बताना मात्र है कि वह उनके किसी भी विद्यार्थी से बेहतर हो सकती है. उसने एक अन्य स्कूल में प्रवेश ले लिया है और डीपीएस अब उसे भूल जाए!

जब वह बोल रही थी, दर्शक भी स्पष्टत: मेरी ही तरह क्रुद्ध थे. तात्कालिक (Online) जनमत संग्रह के अनुसार 90 प्रतिशत दर्शकों का खयाल था कि अंग्रेज़ी भाषा हमारी शिक्षा व्यवस्था पर एक असंतुलित प्रभाव डाल रही है.

लेकिन क्या हम सबका बरताव पाखण्डी और बेईमानों जैसा नहीं है? इस बार डीपीएस सामने आ गया, लेकिन क्या हममें से कोई भी उससे भिन्न है?

कल्पना कीजिए, वह स्कूल में भी बहुत उम्दा प्रदर्शन करती है. अगला मुकाम है कॉलेज. मैं कल्पना करती हूं कि वह मेरे पुराने कॉलेज, दिल्ली के सेण्ट स्टीफेंस में दाखिले के लिए इण्टरव्यू दे रही है. क्या उसे ले लिया जाएगा? अगर ले भी लिया गया, दूसरे विद्यार्थियों की उसके बारे में कैसी प्रतिक्रिया होगी? क्या वे उसकी अकादमिक प्रखरता की सराहना करेंगे? या वे उसके उच्चारण का मज़ाक उड़ायेंगे और जब भी वह कोई व्याकरणिक गलती करेगी, उसका उपहास करेंगे और फिर उसे अपने दोस्त खोजते रहने के लिए अकेला छोड़ जाएंगे? गरिमा का यह आख्यान भविष्य के साथ भारत के विकृत साक्षात्कार का एक रूपक है.

कार्यक्रम खत्म होने के बाद मुझे पता चला -और यह महत्वपूर्ण है कि यह बात उसने या उसके मां बाप ने नहीं बताई- कि वह ओबीसी (OBC) से है.

पिछले कुछ महीनों से आरक्षण पर बहस गर्म है. इसके विरोधियों ने बार-बार वही बात दुहराई है कि हमें योग्यता की कद्र करने वाला समाज बनाना चाहिए. निश्चय ही यह एक वज़नदार तर्क है और मैं भी इसी के पक्ष में रही हूँ.

लेकिन गलियों में आरक्षण विरोध की लड़ाई लड़ने वाले अब क्या कहेंगे? यहां है वह लड़की जिसने मुख्यधारा में प्रतिस्पर्धा की है. उसका अपना डीएवी (DAV) भी चमचमाते, अमीर, बड़े नामों के सामने टिका रहा है. लेकिन उसकी योग्यता को तो पूर्वाग्रह ने निगल लिया! तो फिर इस बात पर अचरज क्यों हो कि आरक्षण समर्थक कहते हैं कि व्यवस्था उनके मार्ग को अवरुद्ध करती है और योग्यता तो उच्च वर्ग के धूर्त्तों द्वारा इस्तेमाल किया जा रहा एक धोखे भरा शब्द मात्र है!

यह आख्यान भारत के वर्ग भेद पर भी एक कटु टिप्पणी है. तेज़ी से बढ़ रहे मध्यवर्ग की बात करना बाज़ारबाजों और अर्थशास्त्रियों के लिए फैशन में शुमार हो चला है. भारतीय बाज़ार और नए मध्य वर्ग के आकार को दर्शाने वाला कोई न कोई आंकड़ा रोज़ उछाला जाता है. इस सप्ताह यह 250 मिलियन है. नहीं-नहीं-नहीं, यह 300 मिलियन हो गया है. हम इन आंकड़ों को गले लगाते हैं क्योंकि हमें भी यह विचार लुभाता है कि भारत इस शताब्दी का लोकप्रिय आर्थिक मुकाम बन रहा है. जब टाइम पत्रिका अपने मुख पृष्ट पर हमारे देश को सजाती है तो हम गर्वित होते हैं; और खास तौर पर विदेशियों के सामने, धड़ल्ले से सामाजिक गतिशीलता और अमीर-गरीब के बीच संकुचित होती जा रही खाई की बात करने लगते हैं. हम कहते हैं कि भारत के भविष्य का निर्माण इसका उद्यमी और साहसी मध्यवर्ग कर रहा है, और महसूस करते हैं कि मानो अभी इसी वक़्त वह भविष्य हमारे सामने साकार हो रहा है.

लेकिन एक सच हम कभी स्वीकार नहीं करते. हम निकृष्टतम दम्भी हैं.

पिछले दशक की सामाजिक गतिशीलता का अर्थ है कि नया मध्य वर्ग हम जैसों से निर्मित नहीं है. इसकी बजाय, यह गरिमा जैसे लोगों से निर्मित है, जिन्हें अलग रखने के बहाने अभी भी हमारे पास हैं. हम पाश्चात्य सॉफिस्टिकेशन के उनके अभाव पर नाक भौं सिकोड़ते हैं, उनके उच्चारण का मज़ाक उड़ाते हैं और यह सुनिश्चित करने की भरसक कोशिश करते हैं कि हमारे बच्चे भी उनके बच्चों से कोई वास्ता न रखें.

और अंत में, गरिमा का आख्यान अंग्रेज़ी भाषा से भारत के रिश्ते की विडम्बना को भी उजागर करता है. पूरी दुनिया में कहीं भी हमारे जैसी अंग्रेज़ी नहीं बोली जाती. हमारा अपना मुहावरा है, अपनी शब्दावली और अपना उच्चारण.

हम अपनी शैली की अंग्रेज़ी से प्यार का ढोंग करते हैं और इस बात की डींग हांकते हैं कि इसी कारण भारत ने विश्व के आउटसोर्सिंग बाज़ार में अपनी धाक जमा रखी है. लेकिन निश्चय ही अंतरमन में हम जानते हैं कि वाकई पश्चिम जिसे चाहता है वैसी अंग्रेज़ी हमारी नहीं है. और इसीलिए, जब भी हम किसी ब्रिटिश या अमरीकी से बात करते हैं, अपनी कथन शैली और उच्चारण के उतार-चढ़ाव में चुपके से फेर बदल कर लेते हैं . जब हम अपने कॉल सेण्टर स्थापित करते हैं तो इस चुपके-से को एक दम अलग कर हमारे अपने समाज के वाणी व्यवहार को पूरी तरह तिलांजलि देते हैं और भाषाई रूप से मध्य अमरीका में प्रव्रजन कर ऐसे लोगों का छद्म-प्रतिरूप बन जाते हैं जिनसे कभी हमारी मुलाक़ात तक नहीं होगी.

लेकिन भारत में हम अपनी अंग्रेज़ी को ही सामाजिक नियंता मानते हैं. हम क्षेत्रीय उच्चारणों पर हंसते हैं, व्याकरण की गलतियां करने वालों का मज़ाक उड़ाते हैं और उनके साथ सहज अनुभव करते हैं जो हमारी तरह से बोलते हैं. शेष सभी तो अंग्रेज़ी की इस विभाजक रेखा के उस पार हैं. स्वाभाविक ही है कि जो दूसरी तरफ हैं उनकी जाति भी भिन्न है, वर्ग भी. शायद इस लघु समुदाय से हमारे मज़बूती से चिपकने के मूल में हमारी असुरक्षा है. हमारे छोटे-से बुलबुले के बाहर भारत बदल रहा है. ताज़ा समय में हर बड़ा संस्थान, चाहे वह संसद हो, नौकरशाही हो, सेना हो, स्कूल कॉलेज हों, अपने नियमों का पुनर्लेखन करने को बाध्य है. भारतीयों की एक नई नस्ल जो अपनी स्वीकृति के लिए पश्चिम की मुखापेक्षी नहीं है, अपनी उपस्थिति महसूस करा रही है. हम इसे गुणवत्ता की कमी कहते हैं. लेकिन असल में तो यह शेष भारत की अन्दर आने की कोशिश है.

हम कब तक दरवाज़े बन्द रखेंगे?

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