ओमप्रकाश दीपक का लेखन कल्पना का हिन्दी लेखन जगत

आधुनिक इतिहास और पारम्परिक समूहों का भविष्य

ओमप्रकाश दीपक (1971 के आसपास)

बीसवीं सदी के आरम्भ तक पश्चिम के, यानि गोरी दुनिया के विद्वान युरोप की वर्तमान औपनिवेशिक सभ्यता के बाहर की सभी पुरानी सभ्यताओं का अध्ययन करते नृतत्व शास्त्रीय संग्रहालयों की तरह करते थे, ये जानने की कोशिश में कि यूरोप की गोरी, ईसाई, और औद्योगिक सभ्यता में मनुष्य की चरम, श्रेष्ठतम उपलब्धियों के पहले मनुष्य लड़खड़ाते कदमों से सभ्यता की किन छोटी चोटी सीढ़ियों पर चढ़ा था. यूरोप की नयी सभ्यता के बाहर के समाजों का अध्ययन, मनुष्य के इतिहास से भिन्न "प्राकृतिक इतिहास" विषय के अन्तर्गत किया जाता था. उसमें धर्म का भी शायद कुछ हाथ था, क्योंकि मसीही विश्वास के अनुसार जिन लोगों की पापमुक्ति के लिए ईश्वर ने न कोई मसीहा या पैगम्बर भेजा था, न कोई "किताब" दी थी, वे निश्चय ही यूरोपीय ईसाईसियों से भिन्न कोटी के जीव थे. इसी के अनुसार उन्नीसवीं सदी तक युरोप के "उदार" कहलाने वाले विद्वान भी दुनिया के रंगीन चमड़ी वाले तमाम लोगों को तीन मुख्य हिस्सों में बाँटते थेः "आदिम" समाजों के लोग, जो "सभ्यता" से सर्वथा अपरिचित थे, और बौद्धिक दृष्टि से भी अविकसित थे. मिस्र और पश्चिमी एशिया तथा मध्य और दक्षिणी अमेरिका की पुरानी अनगढ़ सभ्यताएँ, जो बहुत पहले नष्ट हो चुकीं, और इन इलाकों के लोग इन्सान कहलाने के लायक हैं तो धर्म के प्रभाव के कारण - उत्तरी अफ्रीका और पश्चिमी एशिया में इस्लाम, और अमरीका में मसीही धर्म. तीसरे, चीन और हिन्दुस्तान जैसे देशों के "अर्ध सभ्य" लोग.

यूरोपीय देशों के औपनिवेशिक विस्तार के साथ ही इन गैर यूरोपीय क्षेत्रों को ले कर झगड़े भी शुरु हो गये थे, और अक्सर ऐतिहासिक अध्ययन इन झगड़ों को ले कर ही केंन्द्रित रहते थे - स्पेनियों द्वारा रक्त मिश्रिण, या अंग्रेज़ों-फ्राँसीसियों द्वारा सामूहिक हत्या, अमरीकी आदिवासी समाजों को खत़म करने का कौन सा तरीका ज़्यादा बुरा था? एशिया, अफ्रीका और अमरीका में विभिन्न यूरोपीय देशों के आचरण का तुलनात्मक अध्ययन दिलचस्प ही नहीं शिक्षाप्रद भी हो सकता है, लेकिन यहाँ मैं ध्यान इस ओर खींचना चाहता हूँ कि बाकी दुनिया के बारे में यूरोपीय देशों के बीच चाहे जो भी मतभेद रहे हों, एक बात पर सभी सहमत थे कि अगर कुछ गलतियाँ हुई भी थीं, तो ऐतिहासिक दृष्टि से उनका कोई विषेश महत्व नहीं था. औपनिवेशिक साम्राज्यों और विभिन्न क्षेत्रों में बसने या काम करने वाले गोरे व्यवसायियों और पादरियों के माध्यम से मसीही सभ्यता के कल्याणकारी प्रभाव के ज़रिये ही दुनिया के असभ्य और अर्ध सभ्य लोग अपनी बौद्धिक और आध्यात्मिक क्षमता की हद तक सभ्य बन सकते थे. स्वभावतः, उसका तो कोई सवाल नहीं उठता था कि वे कभी सभ्य गोरी जातियों के समकक्ष भी आ सकते थे.

जिसे यूरोप का "नवजागरण" काल कहा जाता है (वास्तव में उसे केवल "जागरण" काल कहना चाहिए) उसके प्रारम्भ होने तक, यानि तैहरवीं चौदहवीं सदी तक, यूरोप के लोगों का सम्पर्क अधिकांश अरब लोगों के साथ ही था, जो उस काल में (11वीं से 18वीं सदी तक) ज्ञान विज्ञान के सभी क्षेत्रों में युरोप के गुरु बन सकते थे. प्राचीन यूनान, खास तौर पर अरस्तु के दर्शन और विज्ञान से युरोपवासियों का वास्तविक परिचय भी स्पेन विजय करने वाले मुसलमान अरबों के माध्यम से हुआ था. उस समय युरोप को, जिसमें नयी स्फूर्ति और शक्ती का संचार हो रहा था, एक चीज़ की कमी बहुत अखर रही थी - इतिहास की. रोम का साम्राज्य, मसीही धर्म का विस्तार, इनमें ऐतिहासिक सामग्री काफ़ी थी, लेकिन मनुष्य की एकमात्र श्रेष्ठतम सभ्यता के लिए पर्याप्त ऐतिहासिक आधार नहीं था. सेन्ट थामस ऐक्वीनास ने अरस्तु के विज्ञान को रोमन कैथोलिक धर्मशास्त्र के साथ जोड़ कर इस कमी को पूरा किया. प्राचीन यूनान की बौद्धिकता, रोम साम्राज्य का संगठन, और मसीही धर्म, इन महान आधारों पर निर्मित होने और उनकी उत्तराधिकारी होने का दावा करने वाली युरोपीय सभ्यता मनुष्य की एकमात्र सभ्यता हो गयी, अन्य सभ्यताएँ तो केवल "अर्ध सभ्यताएँ" थीं, अक्षम समूहों का असफल प्रयत्न.

इस संदर्भ में क्या युरोप के सामूहिक अवचेतन की किसी हीन भावना के कारण ही युरोप की मूलतः औपनिवेशिक सभ्यता के विद्वानों का दिमाग बराबर इतिहास दर्शन पर, इतिहास की व्याख्या करने की चेष्टाओं पर केंद्रित रहा है? आधुनिक युरोपीय सभ्यता के मूल उत्स से इन चेष्टाओं का कोई सम्बंध हो, यह ज़रूरी नहीं. बल्कि कोई महत्वपूर्ण सम्बंध शायद नहीं ही है. लेकिन इतिहास की व्याख्याओं में आम तौर पर और जो भी विवाद रहे हों, एक बात पर व्यापक सहमति रही है कि सभ्यता का अर्थ है युरोप और वह हमेशा से विश्व का नेता और गुरु रहा है. (भारत को विश्व गुरु का दर्जा देने दिलाने के इच्छुक लोग ज़रा इस तरह की बातों पर सोचा करें तो अच्छा हो.) इतिहास दर्शन की यह परम्परा उन्नीसवीं सदी के अन्त तक चलती रही, और मार्क्स शायद इसके अंतिम प्रवक्ता थे. एक विश्व व्यवस्था के रूप में पूँजीवाद के विस्तार और समाजवादी क्रांती में यह अन्तर्निहित था कि इस क्रम में युरोपीय सभ्यता अन्य "असभ्य" समाजों में जागरण लाती हुई (पहले पूँजीवादी, फ़िर समाजवादी रूपों में) विश्व सभ्यता बन जायेगी.

बीसवीं सदी की पहली चौथाई में ही यूरोप उत्तरी अमरीका के कुछ संवेदनशील लोगों के दृष्टिकोण में कुछ परिवर्तन दिखाई देने लगा. इसकी अभिव्यक्ति अगर एक स्तर पर स्पेंगलर की "डिक्लाईन ओफ दी वेस्ट" में हुई तो दूसरे स्तर पर ही एस. इलियट की "वैस्टलैंड" में. 1939-45 के युद्ध के पहले हिन्दुस्तान, चीन और मेक्सिको की राजनीतिक घटनाओं का, और काफ़ी हद तक तुर्की, मिस्र तथा कुछ दक्षिण अमरीकी देशों में होने वाली हलचलों का भी प्रभाव पड़ा. पुरातत्व, नृतत्व शास्त्र, समाजशास्त्र और मनोविज्ञान में हुए अध्ययन और खोजकार्य से भी दृष्टिसुधार में सहायता मिली. बहरहाल दूसरे महायुद्ध के तत्काल बाद 1945 और 1950 के बीच के पाँच वर्षों में ऐसा प्रतीत हुआ जैसे युरोप उत्तरी अमरीका में कम से कम, चोटी के विद्वानों में, एक नये बौद्धिक वातावरण का निर्माण हुआ है जिसमें युरोपीय श्रेष्ठता की भावना का पूर्ण रूप से परित्याग कर दिया गया है. उसमें दार्शिनकों और इतिहासकारों दोनों ने ही प्रमुख योग दिया.

इस नये बौद्धिक वातावरण की एक ख़ास मिसाल (यूँ इसके बहुसंख्यक उदाहरण हैं) अमरीकी दार्शनिक नारथ्राप की "दी मीटिंग आफ़ ईस्ट ऐन्ड वेस्ट" में देखी जा सकती है जिसके पहले अध्याय के प्रारम्भिक वाक्यों में ही 1939-45 के युद्ध के बारे में कहा गया है कि "ठीक ठीक कहें तो यह पहला विश्व युद्ध है." (रेखांकन मूल पुस्तक में) अर्थात 1914-18 का युद्ध विश्व युद्ध नहीं था, केवल युरोपीय देशों का आपस में युद्ध था. यहां यह आपत्ती उठायी जा सकती है कि 1939-45 का युद्ध भी विश्व युद्ध नहीं था, मूलतः 1914-18 के युद्ध का ही भौगोलिक दृष्टि से अधिक विस्तृत रूप था. इस भौगोलिक विस्तार के कारण उसे विश्व युद्ध कहना उचित है या नहीं, इसकी बहस यहाँ अप्रसांगिक होगी. नारथ्राप की बात का असली महत्व इस स्पष्ट स्वीकृति में है कि यूरोप के लोग एक लम्बे अरसे से अपने अनुभवों को, अपनी संस्थाओं और अवधारणाओं को, जो यूरोपीय सभ्यता के बाहर वैध या सार्थक नहीं थीं, बिल्कुल नकली और गलत ढंग से सार्विकता का जामा पहना कर सारी दुनिया पर लागू करते चले आ रहे थे.

लेकिन यह बौद्धिक वातावरण कायम नहीं रहा. इसका मूल कारण यही है कि कुछ ख़ास व्यक्तियों और छोटे छोटे समूहों को छोड़ कर, जिनका अपने समाज पर कोई निर्णायक प्रभाव नहीं है, इस बौद्धिक वातावरण के पीछे मूल भावना भय की थी. दो बड़े युद्धों और उनके बीच होने वाली घटनाओं ने गोरी दुनिया के अंदर यह भय उत्पन्न कर दिया कि उनकी सभ्यता कहीं आत्महत्या की ओर तो नहीं बढ़ रही है. अपने आपसी झगड़ों का निपटारा न कर पाने के कारण यूरोप के देश दो बड़े युद्धों में फँसे, जिनमें यूरोप की अपार क्षति हुई. 1905 में रूस पर जापान की विजय आधुनिक युग में किसी यूरोपीय महाशक्ति पर किसी एशियाई देश की पहली विजय थी, और दोनो युद्धों के बीच जापान स्वयं एक औद्यौगिक और सामरिक महाशक्ति बन गया था. 1947 की क्रांती के बाद, कम से कम पहले दौर में साम्यवादी रूस यूरोपीय सभ्यता से अलग एक नये प्रकार के समाज का निर्माण करता प्रतीत हो रहा था. कई देशों में साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष काफ़ी तीव्र हो गया था, और दूसरे महायुद्ध में हालैन्ड, बेलजियम और फ्रांस की पराजय से उनके उपनिवेशों की स्वतंत्रता वैसे ही अनिवार्य प्रतीत होने लगी थी जैसे डेढ़ सौ साल पहले नेपोलियन के हाथों स्पेन की पराजय के बाद स्पेन के अमरीकी उपनिवेशों की स्वतंत्रता अनिवार्य हो गयी थी.

लेकिन 1950 के बाद यह भय दूर हो गया. मार्शल योजना के फलस्वरूप पश्चिमी यूरोप के देश शीघ्र ही दोबारा अपने पावों पर खड़े हो गये, बल्कि उनकी समृद्धि उत्तरोतर बढ़ने लगी. रूस अमरीका के शीत युद्ध और उसके फलस्वरूप यूरोप के विभाजन से चाहे जो भी तनाव पैदा हुए, इससे यह भी साबित हो गया कि सोवियत रूस का लक्ष्य यूरोपीय सभ्यता का शक्तिशाली अंग बनना ही था. पराजित जापान में यूरोपीय राजनीतिक संस्थाओं और समाजिक संगठन के प्रतिरोपण में कोई कठिनाई अमरीका को नहीं हुई.

1950 के बाद यह भी स्पष्ट हो गया कि दूसरे महायुद्ध के बाद स्वतंत्र होने वाले देशों से गोरी सभ्यता को कोई खतरा नहीं था. अमरीका में उन्नीसवीं सदी के आरम्भ में स्वतंत्र होने वाले देशों को संयुक्त राज्य अमरीका ने तत्काल अपने संरक्षण में ले लिया था. मेक्सिको से ले कर चिली तक मध्य और दक्षिणी अमरीका के बीस देशों में से अधिकांश में नये शासक या तो स्पेन पुर्तगाल से आ कर बसे हुए लोग थे या मिश्रित रक्त के लोग. समूचे महाद्वीप के आदिवासियों का राजनीतिक सामाजिक संगठन बिखर गया था. मेक्सिको के जुआरेज़ को छोड़ कर सारे महाद्वीप में एक भी बड़ा आदिवासी नेता सामने नहीं आया. स्वतंत्र राज्यों में भी आदिवासी पहले की तरह शक्ति केन्द्रों से दूर, गरीबी और शोषण के शिकार रहे. मसीही धर्म नये राज्यों के साथ भी जुड़ा रहा. शायद केवल मेक्सिको में ही उसने एक विशिष्ठ रूप ग्रहण किया. लेकिन मेक्सिको में भी राज्यशक्ति अधिकांश गोरे अधगोरे लोगों के हाथ में ही केंद्रित रही. विदेशी सत्ता को समाप्त करने में आदिवासियों ने बहुधा प्रमुख योग दिया, लेकिन देश में शक्ति और सत्ता एक यूरोप अभिमुख अभिजात वर्ग में ही केंद्रित रही.

एशिया और अफ्रीका में जातीय स्थिति ऐसी नहीं थी. लेकिन बीसवीं सदी के उत्तरार्ध तक, चार सौ साल दुनिया में राज करने के बाद गोरी सभ्यता ने सारी दुनिया की स्थिति को चार बुनियादी मामलों में बदल डाला था - जापान के अपवाद को छोड़ कर, तमाम रंगीन चमड़ी वाले लोगों की उत्पादन व्यवस्थाएँ नष्ट हो गयीं थीं. उनकी जगह ऐसी व्यवस्थाओं ने ले ली थी जिनका उद्देश्य यूरोप की ओद्योगिक व्यवस्था की ज़रूरतों को पूरा करना था. दूसरे गोरों की आबादी का अनुपात दुनिया की आबादी के दसवें हिस्से से बढ़ कर तीसरे हिस्से पर पहुँच गया था. (इसपर क़यामत है कि अच्छे भले लोग रंगीन चमड़ी के लोगों में जनसंख्या वृद्धि को विश्व युद्ध के खतरे के बाद दुनिया का सबसे बड़ा खतरा मनाते हैं!) तीसरे, साम्राज्यवाद के ज़रिये गोरी सभ्यता ने अपनी उत्पादन प्रणाली का ऐसा विकास कर लिया कि गोरे मज़दूर की औसत उत्पादकता एशिया अफ्रीका के मज़दूर से बीस गुनी तक अधिक हो गयी. चौथे, उपनिवेशवाद ने अपने अधीन सभी देशों में नौकरशाही, व्यापार और सेना में एक ऐसे छोटे से वर्ग का निर्माण किया जो बोली, रहन सहन, और सतही विचारों में (जीवन के बुनियादी मूल्य नहीं) गोरे लोगों की बन्दर नकल को ही जीवन की श्रेष्ठतम उपलब्धि मानने लगा. यह वर्ग पहले उपनिवेशवाद को कायम रखने का औज़ार था, फ़िर स्वतंत्र देशों में गोरी दुनिया के अप्रत्यक्ष साम्राज्यवाद को क़ायम रखने का औज़ार बन गया.

साम्यवादी चीन ने मूलतः वही मार्ग अपनाया है जो दूसरे महायुद्ध के पहले जापान ने अपनाया था - क्रूर सैनिक राजनीतिक तानाशाही के माध्यम से शक्ति और साधनों का केन्द्रीकरण, और इस केन्द्रित शक्ति के इस्तेमाल सामरिक शक्ति का विकास करके अपने को विश्व के राष्ट्रों के बीच एक महाशक्ति के रूप में प्रतिष्ठित करना. विस्तारवाद का परिचय तो साम्यवादी चीन ने 1950 में तिब्बत पर सैनिक अभियान के द्वारा कब्ज़ा करके ही दे दिया था. भारतीय भूमि पर अधिकार और 1962 में भारत पर आक्रमण उसी नीति की कणियाँ थीं. चीन को इतनी सफलता मिली है कि आम तौर पर उसे अब एक महाशक्ति के रूप में स्वीकार कर लिया गया है. अमरीका द्वारा चीन से सम्बंध सुधारने की कोशिश, सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता और संयुक्त राष्ट्र संघ से ताइवान का निष्कासन इस स्विकृति के औपचारिक परिणाम हैं. अब यह अपेक्षा की जा सकती है कि चीन धीरे धीरे सम्पूर्ण दक्षिण एशिया में अपना प्रभाव क्षेत्र स्थापित करने के लिए प्रयत्नशील होगा.

इस सिलसिले का नतीज़ा बुनियादी तौर पर यह निकला है कि गोरी सभ्यता ही अब भी "असली" सभ्यता है, और सारी दुनिया को उसी के अनुरूप अपना विकास करना है. लेकिन आग्रह बदल गया है. अब यह सभ्यता उन्नीसवीं सदी की, या बीसवीं सदी कके पहले दशकों की "मसीही" सभ्यता नहीं है, वरन् "आधुनिक औद्योगिक" सभ्यता है. लेकिन इससे रंगीन चमड़ी वाले लोगों की दिक्कतें किसी तरह कम नहीं होतीं. अभी भी कुछ ऐसे लोग हैं जिनकी गिनती "आधुनिक" विचारकों में होती है, जो यह मानते हैं कि दुनिया के गोरे लोग अन्य लोगों से श्रेष्ठ हैं. कारण बदल गये हैं. गोरे लोग श्रेष्ठ ईसा मसीह की कृपा से नहीं हैं वरन् इस लिए हैं कि अपनी सभ्यता के माध्यम से वे दुनिया के अन्य सभी लोगों से श्रेष्ठ प्राणी के रूप में विकसित हुए हैं - प्राणीशास्त्रीय विकासवाद के अनुसार.

इसके समकक्ष, राजनीति में, अफ्रीकी महाद्वीप के दक्षिणी भाग में कालाहारी मरुस्थल के चारों ओर, इन श्रेष्ठ गोरों के द्वारा एक नये शक्तिकेंद्र का निर्माण किया जा रहा है. ब्रितानिया, हालैंड और पुर्तगाल से आ कर बसे लोग ज़िम्बाबवे (द. रोडेशिया), दक्षिणी अफ्रीका, नामिबिया (दक्षिणी पश्चिमी अफ्रीका), अंगोला और मोज़ाम्बीक में मिल कर गोरी सभ्यता के एक नये गढ़ का निर्माण कर रहे हैं. यह सभ्यता अपने इस गढ़ में "मसीही" भी है, "औद्योगिक" भी, "गोरी" भी. और यहाँ कैथोलिक-प्रोटेस्टेंट, लोकतंत्र-तानाशाही, लातिन-ऐग्लोसेक्सन, इन सब का कोई महत्व वास्तव में है नहीं, महत्व है सिर्फ यूरोपीय वंशज होने का.

बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है जो सिद्धांत रूप में अब गोरी दुनिया की श्रेष्ठता का दावा नहीं करते. लेकिन यह सब निहायत भले और सज्जन लोग, यह मान कर चलते हैं कि औद्योगिक विकास ही सभ्यता का आधार है. जाने अनजाने यह भूल कर कि जिसे "आधुनिक" औद्योगिक व्यवस्था कहा जाता है, वह प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष साम्राज्यवाद के माध्यम से ही निर्मित हुई है. यह भले लोग निहायत मासूमियत के साथ दुनिया के तमाम ग़रीब देशों की तरफ़ देख कर सवाल उठाते हैं - इनका औद्योगिक विकास क्यों नहीं हो रहा? अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, सामाजिक मनोविज्ञान, राजनीति, सभी दृष्टियों और पहलुओं से इस प्रश्न पर विचार करने के बाद यह सज्जन मूलतः इसी नतीजे पर पहुँचते हैं कि रंगीन चमड़ी वाले लोग अपना आधुनिकीकरण करें, तभी उनमें औद्योगिक विकास हो सकता है. "पाराम्परिक समाजों का आधुनिकीकरण" यह पश्चिमी चिंतन की एक केंद्रीयसमस्या बन गयी है. यह समस्या ही इसी लिए है कि तथाकथित "पाराम्परिक" समाजों की कुछ खासियतें ऐसी हैं, जो उनके आधुनिकीकरन में बाधक हैं. इस चिंतन के नतीजे अलग अलग निकलते हैं. कुछ शुभचिंतक कहते हैं कि जो अपना आधुनिकीकरण नहीं करेंगे, नुकसान उन्हीं का होगा. कुछ को तकलीफ़ होती है कि पश्चिमी सभ्यता सार्विकता के अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर पा रही. कुछ की राय में पाराम्परिक समाजों में बस इतना ही परिवर्तन काफ़ी है कि उनमें औद्योगीकरण हो सके. लेकिन औद्योगीकरण की स्वतःस्फूर्त प्रक्रिया के लिए, कुछ लोगों की राय में आमूल और व्यापक परिवर्तन आवश्यक है, यानी आधुनिक मूल्यों की प्रतिष्ठा के बिना औद्योगीकरण भी नहीं हो सकता, गो ये "मूल्य" कौन से हैं इस पर सहमती केवल एक बात को ले कर है - तकनालाजी. यूरोप उत्तरी अमरीका की उत्पादन पद्धति आधुनिकता की बुनियादी शर्त है.

घूम फिर कर हम फिर उसी जगह वापस आ गये हैं. चार सौ साल तक बाक़ी दुनिया को जो अपनी ज़रूरत के मुताबिक गढ़ने की कोशिश, और इसमें बाधक सभी तत्वों कको नष्ट करने के बावज़ूद, बीसवीं सदी में इस दावे को जारी रखना संभव नहीं गया था कि गोरी सभ्यता ही एकमात्र "सभ्यता" है, और यूरोप हमेशा से दुनिया का नेता और गुरु रहा है, अब भी है. लेकिन सिद्धांत रूप में मनुष्य की समानता, और अतीत की अन्य सभ्यताओं की उपलब्धियों की स्वीकृति के बावज़ूद, गोरी सभ्यता अपनी आधुनिक "तकनालाजी" के कारण श्रेष्ठ है, और अगर व्यवहार में दुनिया के लोगों में समानता स्थापित करनी है, तो यह तभी हो सकता है जब सारी दुनिया इस तकनालाजी को अपना ले. अगर रंगीन चमड़ी वाले लोग ऐसा नहीं कर पाते तो ज़ाहिर है कि उनमें, उनके समाजों में, उनकी सभ्यता में कुछ बड़ी कमियाँ हैं. गोरी दुनिया को पहले ख़ुदा ने श्रेष्ठ बनाया, अब तकनालाजी ने श्रेष्ठ बना रखा रखा है.

कुछ थोड़े से गिने चुने लोग पश्चिम में ऐसे भी ज़रूर हैं, जो अगर पूरी तरह अपनी सभ्यता को अस्वीकार नहीं करते (गो पूर्ण अस्वीकृति वाले लोग भी हैं) तो कम से कम उसके वर्तमान रूप की सार्विकता से इन्कार करते हैं. इनमें बहुत तरह के लोग हैं, लेकिन मोटे तौर पर उनमें दो श्रेणियाँ हैं. एक प्रकार के लोग वे हैं जो अनुभव करते हैं कि यूरोप उत्तरी अमरीका के "समृद्ध", "उपभोत्ता" समाज ने न सिर्फ़ आदमी को मशीन का ग़ुलाम बना दिया है, बल्कि उसके मानसिक या आध्यात्मिक जीवन में शून्यता उत्पन्न कर दी है, जिसके फ़लस्वरूप पूरी सभ्यता ही खंडित व्यक्तित्व का शिकार हो गयी है. दूसरी ओर ऐसे लोग हैं जो अनुभव करते हैं कि उनकी पूरी सभ्यता जातीय विषमता और औपनिवेशिक शोषण की नींव पर ही खड़ी है. लेकिन ऐसे लोगों की संख्या बहुत कम है जो इस बात को भी समझते हैं कि यह दोनो पहलू एक दूसरे से बहुत गहरे जुड़े हुए हैं. ऐसे लोगों ने स्वभावतः सभ्यता की समस्या को विश्व संदर्भ में देखा है, और कुछ ने इसे "संस्कृति का संकट" कहा है, इस अर्थ में कि मनुष्य की अब तक की कोई भी सभ्यता ऐसी नहीं रही है कि उसमें मनुष्य का बहुमुखी व्यक्तित्व उसमें पूरी तरह विकसित हो सकता. हर सभ्यता किसी एक दिशा में ही विकसित हुई. फलस्वरूप विश्व का भौगोलिक विभाजन उसका सांस्कृतिक विभाजन भी है.

ऐसी हालत में, किसी ऐसी विश्व सभ्यता का निर्माण क्या संभव है जिसमें दुनिया की अलग अलग संस्कृतियाँ एक दूसरे से सीख कर अपने अभावों की पूर्ती कर सकें? सिद्धांत रूप में अगर इसे मान भी लिया जाये, तो दुनिया की मौजूदा विषमता और भिन्नताओं को देखते हुए, इसे व्यवहार में कैसे लाया जा सकता है? इन प्रश्नों का उत्तर देना आसान नहीं है, और बहुत कम लोगों ने उसका जोख़िम उठाया है. उनकी विषेश चर्चा यहाँ अनावश्यक है. एक ऐतिहासिक अनीवार्यता की चर्चा भी इस संद्रभ में की गयी है - हथियारों की विध्वंसक शक्ति इतनी बढ़ गयी है या फ़िर इन हथियारों का इस्तमाल मौजूदा सभ्यता को ही ख़तम कर देगा. शायद एक विकल्प और भी है - एक शक्ति आधारित अंतर्राष्ट्रीय जाति प्रथा. पिछले पच्चीस वर्षों का इतिहास दिखाता है कि इस तरह की जाति प्रथा चलाई जा सकती है और शक्ति सम्बंधों में परिवर्तन के अनुसार उसमें थोड़ा बहुत हेर फ़ेर भी हो सकता है. मिसाल के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ सुरक्षा परिषद के अस्थायी सदस्यों की संख्या बढ़ा दी गयी क्योंकि संयुक्त राष्ट्र संघ की सदस्य संख्या दोगुनी से भी ज़्यादा हो गयी है. इसके साथ ही अमरीका की हैसियत कुछ घटी है. साम्यवादी चीन दुनिया के द्विज राष्ट्रों की कोटि में आ गया है. लेकिन क्या किसी ऐसी व्यवस्था को अनिश्चित काल के तक चलाया जा सकता है जिसमें स्वयं को अपने निकट अतीत की तुलना में तो लगभग सभी देशों की स्थिति सुधरेगी, लेकिन विभिन्न देशों के बीच विषमता बढ़ती ही चली जायेगी? मिसाल के लिए निकट भविष्य में ही, जापान और जर्मनी की हैसियत का सवाल इस व्यवस्था के लिए बड़ी झंझट पैदा कर सकता है.

बहरहाल ऐतिहासिक अनिवार्यताओं की बात छोड़ें, हर हालत में किसी विश्व सभ्यता का निर्माण और विकास उस समस्या के हल से जुड़ा हुआ है, जिसे "संस्कृति का संकट" कहा गया है, यानि राष्ट्र के अंदर ही नहीं, राष्ट्रों के बीच भी समता हो. सम्भावतः धर्म इस "संस्कृति के संकट" का एक महत्वपूर्ण पक्ष है, यद्यपि पश्चिमी विद्वान अक्सर इस पक्ष की उपेक्षा कर जाते हैं. इधर फ्राँसिसी नृतत्वशास्त्री क्लाउड लेवी स्ट्रास के अध्ययनों ने इस संकट के एक नये आयाम को उजागर किया है - जो समाज अभी तक लगभग सभी लोगों द्वारा असभ्य और जँगली समझे जाते रहे हैं (जो निरक्षर हैं, और जिन्हें लेवी स्ट्रास भी "पूर्व कालिक" कहते हैं) उनकी बौद्धिक प्रक्रियाएँ उतनी ही विकसित और पेचीदा हैं जितनी की "सभ्य" कहलाने वाले समूहों की. अर्थात ये "कबाइली" कहलाने वाला जीवन बिताने वाले लोग भी दरअसल उतने ही सभ्य हैं जितने कि प्राचीन सभ्यताओं के वारिस, या कि वर्तमान गोरी सभ्यता के लोग. लेकिन उनका भविष्य क्या है?

गोरी सभ्यता के बाहर दुनिया के लोगों का भविष्य क्या है, इस सवाल का जवाब खोजने से पहले हम इस तथ्य को देख सकते हैं कि ईसा पूर्व की छठी शताब्दी में जन्में बौद्ध धर्म ने जब दीक्षा ले कर धर्म परिवर्तन की व्यवस्था शुरु की, तो उसने धर्म और पारम्परिक संगठन में एक बड़ी क्रांती का सूत्रपात किया. तब तक राज्य, धर्म, संस्कृति और सामाजिक संगठन में सब मिल कर एक इकाई का निर्माण करते थे. धर्म में न केवल आदमी का सम्पूर्ण व्यक्तित्व बल्कि उसके सामाजिक सम्बंध भी आ जाते थे. बौद्ध धर्म ने आध्यात्मिक व्यक्तित्व को सामाजिक सम्बंधों से अलग किया. बौद्ध धर्म ने इसे सम्भव बनाया कि एक दिन पहले तक की नगरवधू, दूसरे दिन भिक्षुणी बन गयी. लेकिन इसके अलावा, बौद्ध धर्म का दार्शनिक आधार पाराम्परिक, पौराणिक समाजों के दार्शनिक आधार के काफ़ी निकट था कि वहाँ जहाँ कहीं भी फ़ैला, पराम्परिक धर्मों के साथ घुल मिल गया. संभर्ष न हुए हों ऐसा नहीं, लेकिन एक तो पाराम्परिक धर्मों की तरह बौद्ध धर्म की भी कोई एक किताब नहीं, दूसरे स्वयं बुद्ध भी ज्ञान की ऐसी अवस्था के प्रतीक हैं जिसे प्राप्त करना दूसरों के लिए भी असम्भव नहीं माना गया. "धर्म परिवर्तन" की व्यवस्था के बावजूद बौद्ध धर्म मूलतः व्यक्तिवादी है.

पाँच सौ वर्ष बाद जन्मे मसीही धर्म और उसके भी पाँच सौ वर्ष बाद बाद जन्मे इस्लाम का चरित्र भिन्न है. बुद्ध जहाँ रास्ता है, ईसा मूलतः माता है, मसीहा है. और मसीही धर्म संगठन उनका प्रतीक है, प्रतिनिधि है. पैगम्बर मोहम्मद "रसूल अल्लाह" हैं, और इस कारण आध्यात्मिकता से ले कर राजनीति तक सभी क्षेत्रों में मनुष्य के मार्ग दर्शक हैं, नेता हैं. मसीही धर्म और इस्लाम दोनो में एक अन्तिमता और एकांतिकता है जो बौद्ध धर्म और पाराम्परिक धर्मों में नहीं है. बहरहाल, यहाँ धर्मों की तुलना करना मेरा उद्देश्य नहीं. मैं इस तथय की ओर ध्यान खींचना चाहता हूँ कि दुनिया की दो तिहाई या और ज़्यादा आबादी अब इन तीन धर्मों के अंतर्गत आ गयी है. यूरोप, दोनो अमेरिका और आस्ट्रेलिया, इन चार महाद्वीपों में तो मसीही धर्म का एकक्षत्र साम्राज्य है. उत्तरी अफ्रीका, पश्चिमी एशिया तथा मध्य एशिया के कुछ भाग उसी तरह मुसलमान हैं. अफ्रीका में सहारा के दक्षिण में मसीही धर्म पराम्परिक धर्मों का स्थान लेने को सचेष्ठ है. दक्षिणी एशिया में इस्लाम, बौद्ध धर्म और हिंदू धर्म के बीच एक तनावपूर्ण सह‍अस्तित्व है. चीन, मंगोलिया और जापान में ऐसे ही बौद्ध धर्म, ताओवाद, कन्फ़ूशियस मत और शिन्तो धर्म के बीच सहअस्तित्व है, लेकिन वहाँ दक्षिण एशिया जैसा तनाव नहीं.

ईसाइयों में गोरो से हमे यहाँ मतलब नहीं, क्योंकि गोरी सभ्यता तो उन्हीं की सभ्यता है. ऐसे अधगोरे लोगों को भी छोड़ देना चाहिये जो हर स्तर पर, पूरी तरह गोरी सभ्यता से जुड़ गये हैं. लेकिन इसके बाद ईसाइयों की बड़ी संख्या बची रहती है, गो ईसाइयों की कुल संख्या देखते हुए बहुत अधिक नहीं, दुनिया की आबादी में लगभग एक तिहाई गोरे हैं जिनके अलावा दुनिया में ईसाइयों की संख्या एक मोटे अनुमान के अनुसार पंद्रह बीस करोड़ के बीच हो सकती है. इनमे भी दो हिस्से हैं.

मसीही धर्म के विभिन्न मतों सम्प्रदायों के अपने अपने विशाल केंद्रीय संगठन हैं, जो सारे के सारे, युरोप या उत्तरी अमेरिका से संचालित होते हैं. ये संगठन मसीही धर्म का इस्तेमाल गोरी सभ्यता के एक उपकरण के रूप में करते हैं. युरोपीय भाषाएँ, युरोपीय रहन सहन और पहनावा और गोरी दुनिया के साथ आर्थिक या व्यापार सम्बंध, युरोप से संचालित केंद्रीय संगठनों के हाथ में इन बातों के साथ मसीही धर्म अनिवार्य और अभिन्न रूप में जुड़ा रहता है.

दूसरा हिस्सा ऐसे ईसाइयों का है जो निष्ठावश या अन्य किसी कारणवश ईसाई तो हो गये हैं, या पीढ़ियों से हैं, लेकिन जो मसीही धर्म के माध्यम से गोरी सभ्यता के साथ नहीं जुड़े, बल्कि जिन्होंने मसीही धर्म को अपने पाराम्परिक जीवन में समाविष्ट कर लिया, कहीं कहीं तो अपने पाराम्परिक धर्म में ही ईसा, मरियम और ईसाई सन्तों को भी उन्होंने अपने देवी देवताओं के बीच यथास्थान प्रतिष्ठित कर दिया.

कुछ ऐसे क्षेत्र भी हैं, मुख्यतः अफ्रीका में इथियोपिया और भारत में केरल, जहाँ युरोप में मसीही धर्म संगठन से सर्वथा स्वतंत्र, डेढ़ हज़ार साल या और ज़्यादा अर्से से ईसाइयों की बस्तियाँ चली आ रही हैं. इस दूसरी कोटी के सभी तरह के ईसाइयों को पराम्परिक समूहों में ही गिनना चाहिये.

इन मामलों की जानकारी में बड़ी जबर्दस्त कमी है. संयुक्त राज्य अमरीका में अब मुश्किल से पांच दस लाख के बीच आदिवासी बचे हैं, वह अभी भी अमरीकी समाज का अंग नहीं बन पाये हैं. उनकी औसत आमदनी ढाई तीन सौ डालर सालाना है (इससे दस गुनी आय तक के लोग सरकारी परिभाषा के अनुसार ग़रीब माने जाते हैं). अपनी धार्मिक मान्यताओं और धार्मिक संस्कारों को वे यथासंभव दूसरों से गुप्त रखते हैं. लेकिन उनमें ऐसे लोग बहुत कम हैं जो अपने पाराम्परिक समाज से कट गये हों. उनके गांव पहले जैसे नहीं, उनकी पौशाक पहले जैसी नहीं, और आम तौर पर उन्होंने अंग्रेज़ी बोलना सीख लिया है. लेकिन उसके अलावा उन्होंने अपने चारों ओर एक दीवार खड़ी कर रखी हैजिसमें किसी बाहरी आदमी का घुस पाना मुश्किल है. उस दायरे के अंदर पाराम्परिक नाच और अन्य संस्कार होते हैं. युद्ध (कोरिया या वियतनाम) से लौटने वाले सैनिक का कबाइली पुरोहित के द्वारा शुद्धि संस्कार होता है. लेकिन कब तक? क्या गोरे अमरीकी समाज में समा जाने के अलावा इनकी कोई और नियति भी हो सकती है? उसकी कल्पना करना कठिन है लेकिन स्वयं उनमें ऐसे लोग हैं जो ऐसा सोचते हैं कि गोरे लोग सार्थक ढंग से जीना नहीं जानते, आदिवासी उन्हें सिखा सकते हैं.

मध्य और दक्षिणी अमरीका का युरोपीय नामकरण "लातिनी अमरीका" अपने आप में औपनिवेशिक दिमाग का सूचक है, क्योंकि समूचे क्षेत्र में गोरों का अनुपात एक चौथाई से अधिक नहीं होगा. इससे यह ऐतिहासिक तथ्य भी छिपा रह जाता है कि उत्तरी अमरीका की तरह दक्षिणी अमरीका में भी आदिवासियों को या तो समूल नष्ट कर दिया गया है या जंगल पहाड़ और रेगिस्तान में जा कर सिर छिपाने को बाध्य कर दिया गया है. अर्जेन्टीना, उरुग्वे और दक्षिणी ब्राज़ील में अब आदिवासी नहीं के बाराबर ही रह गये हैं. चिली में भी आदिवासी तो नहीं रह गये, लेकिन बहुसंख्या गोरों की है या मिश्रित रक्त वालों की, उसके बारे में कुछ बहस है.

आदिवासियों की कुल संख्या कितनी है, इसका कुछ ठीक पता नहीं. लेकिन कुल आबादी में उनका अनुपात भी मोटे तौर पर एक चौथाई आँका जाता है. शेष आधी आबादी मिश्रित रक्त वालों की है. गोरे और मिश्रित रक्त वाले लगभग सारे ही ईसाई हैं. आदिवासियों में भी ईसाईयों की संख्या काफ़ी है. समूचे क्षेत्र में रोमक कैथोलिक मत का एकाधिपत्य है. यहाँ पाराम्परिक समूहों की स्थिति पर विचार करते समय धर्म और रक्त मिश्रण दोनो को ही ध्यान में रखना ज़रूरी है. मेक्सिको ही शायद एकमात्र ऐसा देश है जिसने कम से कम सांस्कृतिक स्तर पर अपने को पुरानी आदिवासी सभ्यताओं से जोड़ने की चेष्टा की है. लेकिन वहाँ की साक्षरता की कसौटी स्पेनी भाषा है, और राजनीतिक आर्थिक जीवन में बहुसंख्यक आदिवासी शक्ति केंद्रों से कटे हुए हैं. धर्म के क्षेत्र में एक किसी हद तक सतही होने पर भी काफ़ी महत्वपूर्ण मिसाल गुआडेलोप की प्रसिद्ध मरियम की मूर्ति है जिसमें मरियम गोरी नहीं हैं, अमरीकी आदिवासी हैं और गिरजाघर में प्रतिष्ठित मूर्तियों में एक मूर्ति आदिवासियों के पाराम्परिक सांस्कृतिक देवता की भी है. लेकिन मेक्सिको में भी पहाड़ी और रेगिस्तानी इलाकों में आदिवासी गरीब और निरक्षर हैं और अब भी अपना पाराम्परिक जीवन बिता रहे हैं.

अन्य देशों में तो आदिवासियों की स्थिति बहुत कुछ अछूतों जैसी है. वे अब भी अपनी प्राचीन भाषाएँ बोलते हैं और इस कारण एक्वाडोर और पेरू जैसे देशों में मताधिकार से भी वंचित हैं - मताधिकार के लिए स्पेनी भाषा का जानना आवश्यक है. इस प्रकार जहाँ उनका समूल नाश नहीं हुआ है, वहाँ भी उनके सामने दो ही विकल्प हैं - अपने पारम्परिक जीवन को त्याग कर अधगोरे बनें और गोरी सभ्यता में दूसरे दर्जे की नागरिकों की हैसियत प्राप्त करें, या जंगलों, पहाड़ों और रेगिस्तानों में अपने पाराम्परिक जीवन की रक्षा करने की चेष्टा करते हुए धीरे धीरे नष्ट हो जायें. इस संदर्भ में मिश्रित रक्त वालों के भी मोटे तौर पर दो हिस्से हैं. एक हिस्सा ऐसा है जो गोरों के साथ जुड़ा रहा है और उनकी शक्ति और सम्पन्नता में कम ज़्यादा हिस्सेदार है. दूसरा हिस्सा ऐसा है जो नाम करने को भले ही ईसाई है, और उसकी नसों में कुछ युरोपीय रक्त भी है लेकिन अन्यथा उसकी स्थिति भी आदिवासियों जैसी ही है और उसके सामने भी वही विकल्प हैं.

अफ्रीका के पारम्परिक समूहों के बारे में जानकारी और भी कम है. एक अनुमान के अनुसार अफ्रीका की आबादी में आधे मुसलमान हैं, एक तिहाई ईसाई और शेष, यानि कुल आबादी का केवल छठा भाग ही पारम्परिक धर्मों को मानने वाला रह गये हैं. लेकिन कुछ अफ्रीकी सूत्रों के अनुसार अफ्रीका की तीस करोड़ से कुछ अधिक आबादी में आठ दस करोड़ के बीच मुसलमान हैं, पाँच सात करोड़ के बीच ईसाई. अगर यह अनुमान सच है तो अफ्रीका की आबादी में लगभग 40-50 प्रतिशत लोग अब भी अपने पाराम्परिक धर्मों को मानते हैं.

लेकिन इन ऊपरी तथ्यों से अलग इस बारे में कोई मतभेद नहीं है के उत्तरी अफ्रीका के अरब देशों को छोड़ कर, आम तौर पर अफ्रीकी लोगों ने जहाँ इस्लाम या मसीही धर्म को स्वीकार कर लिया है वहाँ भी इससे उनकी पाराम्परिक जीवन पद्धिति में कोई महत्वपूर्ण परिवर्तन नहीं हुआ है. पिछले कुछ दशकों में, खास तौर पर मसीही धर्म के सम्बंध में, दो प्रवृतियाँ विषेश रूप से दिखाई पड़ी हैं. एक तो सम्भवतः राष्ट्रवाद के प्रभाव के कारण, युरोप स्थित केंद्रों के नियंत्रण से मुक्त, स्वतंत्र अफ्रीकी धर्म संगठनों के निर्माण के आंदोलन बड़े पैमाने पर हुए हैं. अफ्रीकी धर्म और दर्शन के एक ईसाई अध्यापक के अनुसार इस तरह के लगभग पाँच हज़ार संगठन पूरे महाद्वीप में बने हैं, जबकि युरोपीय केंद्रों से सम्बद्ध मसीही धर्म संगठनों की संख्या लगभग एक हज़ार है. स्वतंत्र धर्म संगठनों के अनुयायियों की संख्या अफ्रीकी ईसाईयों में कितनी हो गयी है, इसकी जानकारी नहीं है. दूसरे ऐसा भी काफ़ी बड़े पैमाने पर हुआ है कि मसीही धर्म स्वीकार करने के कुछ समय बाद लोग फ़िर अपने पाराम्परिक धर्मों में वापस चले जाते हैं. यहाँ भी हम ईसाईयों की एक दुविधा देख सकते हैं. एक स्तर पर युरोप से स्वतंत्र होने की चेष्टा, रानीतिक अधिक है, सांस्कृतिक कम. अगर आर्थिक संगठन और आर्थिक विकास के संदर्भ में लक्ष्य गोरी सभ्यता की नकल करना ही रहता है, तो अफ्रीका के मसीही धर्म संगठन स्वतंत्र भले ही जायें, अफ्रीकी लोगों का पराम्परिक जीवन कायम नहीं रह सकता. यह बात उन लोगों के लिए भी सच है जो धर्मों को अब भी मानते हैं. और मूलतः उनके सामने भी वही समस्या है जो मध्य और दक्षिणी अमरीका के आदिवासी समूहों के सामने है. इतना फर्क शायद है कि अफ्रीका में गोरों और मिश्रित रक्त वालों की संख्या बहुत कम होने के कारण पारम्परिक अफ्रीकी समूहों के समूल नष्ट होने की संभावना नहीं है. लेकिन अगर नाश नहीं, तो सड़न. गोरी सभ्यता की बंदर नकल (जिसकी प्रवृति अफ्रीकी शासक वर्ग में भी बड़े पैमाने पर दिखाई देती है) या सड़न, अभी तो यही विकल्प दिखायी देते हैं.

इस्लाम बड़े धर्मों में सबसे नया, और सबसे अधिक राजनीतिक है. मसीही धर्म के पोप मूलतः धार्मिक नेता रहे हैं, जिनकी राजनीतिक शक्ति धीरे धीरे घटती रही है, गो अब भी आम तौर पर जैसा समझा जाता है उससे बहुत अधिक है. लेकिन इस्लाम के ख़लीफ़ा मुख्यतः राजनेता थे जिनका कर्तव्य इस्लाम के प्रचार और और उसकी रक्षा के लिए राजशक्ति का इस्तेमाल करना था. धर्म संगठन की शक्ति धर्म की व्याख्या करने वाले उलमाओं के हाथ में थी और अब भी है. लेकिन इस्लाम रंगीन चमड़ी वाले लोगों का धर्म है और इसलिए राजनीतिक दृष्टि से दुर्बल है. इस्लाम के सामने इस कारण मुख्य समस्या आंतरिक है. फ़िलहाल इस्लाम में इतनी शक्ति नहीं है कि राजशक्ति के इस्तेमाल से सारी दुनिया को मुसलमान बनाने की बात सोची जाये. आंतरिक शक्ति का भी विकास होने पर यह सोचना भी संभव होता कि इस्लाम को राजनीति से उसी तरह जोड़ा जाये जैसे गोरी सभ्यता अभी भी मसीही धर्म से जुड़ी है. कुछ लोगो ने सारी दुनिया में इस्लाम और मसीही धर्म के गँठजोड़ की कल्पना भी की है. लेकिन यह तमाम बातें वस्तुस्थिति के संदर्भ में अयथार्थ प्रतीत होती हैं, क्योंकि इस्लामी समाज स्वयं एक प्रकार का पाराम्परिक समाज बन गया है, स्थिर, गतिहीन. इस्लाम का ह्वास चूँकि पिछले छः सौ सालों में ही हुआ है, इस कारण मुसलमानों के लिए इस तथ्य को स्वीकार करने में एक तरह की मानसिक अड़चन आती है कि अन्य धर्मों की तरह इस्लाम के आध्यातमिक और मानवीय मूल्यों का महत्व भी कम होगा, लेकिन इस्लामी कानून और इस्लामी राजनीति के आधार पर नयी दुनिया नहीं बनायी जा सकती. फ़िर भी यह एक असलियत है कि गैर अरब अफ्रीका में, हिन्दुस्तान में, मलयेशिया और इन्दोनेशिया में, इन क्षेत्रों के पाराम्परिक धर्मों के साथ इस्लाम का समन्वय उसी प्रकार हुआ है कि धार्मिक भावनाओं का आवेग छोड़ दें तो इन देशों के मुसलमानों और अन्य लोगों में कोई बुनियादी अंतर नहीं है. जिन देशों की सारी आबादी मुसलमान है, वे भी पाराम्परिक समाज ही हैं, चाहे मोरोक्को हो या मिस्र, ईरान हो या सऊदी अरब. इस्लाम की समस्या कुछ ज़्यादा पेचीदा इस कारण हो जाती है कि आर्थिक और सांस्कृतिक परिवर्तन के साथ यहां धर्म और राजनीति के सम्बंधों की समस्या भी जुड़ गयी है. समस्या अन्य समूहों में भी है लेकिन उसका रूप भिन्न है. दक्षिण अमरीका में वह आत्मरक्षा की है. गैर अरब अफ्रीका में समस्या यह है कि राज्यों की सीमाएँ पुराने उपनिवेशों की ही सीमाएँ हैं, जिसके फ़लस्वरूप राज्यों के अन्दर प्रतिद्वन्द्विताएँ भी उभरी हैं और कई राज्यों में बटे हुए समान सांस्कृतिक परम्परा वाले लोगों के बीच एकता की इच्छा भी. उत्तरी अफ्रीका के लोगों के लिए यह तो मुमकिन है कि वे अरब और अफ्रीकी राजनीति में मेल बिठा सकें, लेकिन उनकी राजनीति अफ्रीकी है या इस्लामी, इसके बीच तो उन्हें चुनाव करना ही पड़ेगा.

हिंदुस्तान में, खास तौर पर बँगलादेश के मुक्ति संग्राम से धीरे धीरे मामला साफ़ होता नज़र आता है कि इस्लाम को राजनीति का आधार बना कर नहीं चलाया जा सकता. मलयेशिया और इंडोनेशिया में यह समस्या पहले से ही ग़भीर नहीं है.

एशिया को वास्तव में हम दो हिस्सों में बाँट सकते हैं, उत्तर और दक्षिण. सोवियत संघ का एशियाई भाग, जापान और अब चीन, इनमें पाराम्परिक समाज में परिवर्तन हुए हैं. दक्षिण एशिया अब भी पाराम्परिक है. वास्तव में गोरी सभ्यता के चलते, पाराम्परिक समाज किस सीमा तक जा सकते हैं, जापान, एशियाई सोवियत गणराज्य और चीन इसके उदाहरण हैं. ये उदाहरण भी ऐसे नहीं हैं जो हर जगह लागू किये जा सकते हों. सामन्ती जापान साम्रज्यवाद फाशीवाद के मार्ग से हो कर पूँजीवादी लोकतंत्र तक पहुँचा है. यह मार्ग अपवाद ही हो सकता है, नियम नहीं. दूसरे अगर यहाँ सन्तोष की बात कोई है तो यही कि जापान कम से कम शक्तिशाली तो बन गया है. किसी वक्त जापान में फाशीवाद के उदय की एक व्याख्या शिन्तो धर्म के सन्दर्भ में भी की गयी थी. जापानी सम्राट सूर्यपुत्र हैं और जापानी लोगों पर ईश्वर की विषेश अनुकम्पा है, जनसाधारण के इस विश्वास के कारण जापानी शासक वर्ग लोगों को फाशीवाद के कठोर सैनिक अनुशासन में बाँध सका. लेकिन अगर यह सच हो तो फ़िर जापान में पूँजीवादी लोकतंत्र का आधार भी शिन्तो धर्म को ही मानना पड़ेगा. वास्तविकता इसके सर्वथा विपरीत है. शिन्तो धर्म से न फाशीवाद का उदय हुआ न पूँजीवादी लोकतंत्र का. बल्कि गोरी सभ्यता की राजनीतिक व्यवस्थाओं को अपनाने के फ़लस्वरूप स्वयं जापानी समाज का चरित्र बदल गया है. पाराम्परिक संस्कृति के अवशेष अभी हैं, लेकिन ऐसे अवशेष तो युरोप के हर देश में भी हैं, जो पूँजीवाद विकास की होड़ में जापान से बहुत पहले शामिल हुए थे.

सोवियत संघ के एशियाई हिस्से में भी ऐसे परिवर्तन हुए हैं कि अब उन्हें पराम्परिक समाज कहना सही नहीं होगा. सोवियत संघ एक ऐसा संयुक्त परिवार है जिसके बजुर्ग उसके युरोपीय सदस्य हैं, और उनमें भी "कर्ता" का स्थान मस्क्वा के इलाके को हासिल है. सोवियत संघ के एशियाई गणराज्यों की हैसियत पिछले पचास सालों में परिवार के "आश्रितों" की रही है, और जहाँ तक भविष्य को देखा जा सकता है इस स्थिति में परिवर्तन की कोई सम्भावना नहीं दिखाई देती. रूस की साम्यवादी तानाशाही की व्याख्या भी अक्सर बाइज़ेनटाइन सभ्यता के संदर्भ में की गयी है. लेकिन फ़िर वर्तमान मध्य एशिया की व्याख्या समरकंद के संदर्भ में कैसे होगी? मार्कसवाद की युरोप केंद्रित दृष्टि के कारण साम्यवाद के अंतर्गत इसके अलावा और कुछ हो भी नहीं सकता कि गोरी सभ्यता के बाहर के लोग बच्चे जैसे समझे जायें और साम्यवाद उनकी प्रगति में सहायक हो. लेकिन इस प्रक्रिया में सम्बंधित ग़ैर युरोपीय समूहों का व्यक्तित्व भले बदल जाये, युरोप के साथ बराबरी नामुमकिन है.

साम्यवादी चीन में चल रही उथल पथल शायद मूलतः इस स्थिति के खिलाफ़ विद्रोह की अभिव्यक्ति है. पूर्वी युरोप के छोटे छोटे देशों को या अज़रबाइजान और उज़बेकिस्तान के आश्रित बना कर रखा जा सकता था. लेकिन विशालकाय चीन को नहीं. साम्यवादी चीन ने जो विकल्प चुना है वह बहुत कुछ वैसा ही है जैसे दोनो महायुद्धों के बीच की अविधि में जापान ने चुना था. तमाम अटकलों और अख़बारी पतंगबाज़ी को छोड़ दें तो आखिर में तथ्य यही सामने आता है कि साम्यवादी चीन में दल और सेना की मिली जुली तानाशाही स्थापित हो रही है जिसका लक्ष्य एक ऐसे शासक वर्ग का निर्माण करना है जिसमें दल और सेना के अलावा, विभिन्न क्षेत्रों में काम करने वाले चुने हुए लोग हों. आगे चल कर इनमें भी कोई फर्क न रह जाये. दल के चुने हुए नेता, सेना के चुने हुए लोग भी हों, और विभिन्न उत्पादन क्षेत्रों के चुने हुए लोग भी. क्राँतिकारी परिषद का हर सदस्य एक साथ ही राजनीतिक कार्यकर्ता भी हो, सैनिक भी, उत्पादक भी. इस तरह चीन और क्यूबा के बीच का सैद्धांतिक फ़र्क घटा है.

चीन की साम्यवादी तानाशाही की व्याख्या अब कुछ लोग कन्फूशियस के व्यवहारवाद के सन्दर्भ में करने लगे हैं, खास तौर पर भारतीय अध्यात्मिकता की तुलना में. लेकिन जापान और रूस की तरह, इस व्याख्या का भी कोई खास मतलब नहीं है. मैं समझता हूँ कि अगर भारत में किसी प्रकार की कोई तानाशाही स्थापित हो जाये, तो जातिप्रथा के सन्दर्भ में उसकी व्याख्या बहुत आसानी से की जा सकेगी और उतनी ही एकाँगी तथा बेमतलब होगी. बहरहाल, चीन में जो नयी तानाशाही बन रही है, संस्कृति समेत चीन के पारम्परिक जीवन को नष्ट कर देना उसका घोषित उद्देश्य है, ताकि एक बिल्कुल नयी संस्कृति का निर्माण किया जा सके. लेकिन सैनिक, राजनीतिक, आर्थिक तानाशाही के द्वारा निर्मित संस्कृति, वह भी सारी दुनिया की एक ही संस्कृति, इससे अधिक राक्षिसी कल्पना और क्या हो सकती है?

भारत, पाकिस्तान से ले कर लाओस, कम्बोदिया और इंडोनेशिया तक एक संस्कृति क्षेत्र है. वियतनाम उस क्षेत्र और चीन के बीच का संधिक्षेत्र है. पारम्परिक समूहों के सामने इस समय जो समस्या है, वह अपने सभी रूपों में इस क्षेत्र में वर्तमान है. अमेज़न के जँगलों और एन्डीस पर्वतमाला में दुनिया से कटे हुए अमरीकी आदिवासियों की तरह, इस क्षेत्र में भी ऐसे आदिवासी समूह हैं जो इतिहास की आक्रामक लहरों से बचने के लिए जंगलों पहाड़ों में छिप गये, और अभी भी बाहर की दुनिया से उनका कोई सम्बंध नहीं है. ऐसे समूह भी हैं जिनकी तुलना अफ्रीकी पारम्परिक समूहों से की जा सकती है, वे बाहर की दुनिया से कटे हुए नहीं हैं, लेकिन जिनका सामाजिक संगठन अब भी वही पुराना पारम्परिक और पौराणिक है. बाहरी दुनिया के साथ सम्पर्क उनके पारम्परिक जीवन में दरारें पैदा कर रहा है. जंगलों की जगह बागानो और खादानो ने ले ली है. शराब अब उत्सव का अंग नहीं रही, उदासी से भागने का उपाय बन गयी है. स्वच्छंद जीवन को बाहरी दुनिया के सम्पर्क ने यौन रोगों से ज़हरीला बना दिया. फ़िर भी उनका पारम्परिक जीवन उन्हें ऐसी सुरक्षा प्रदान करता है जिसमें जीवन का रस बिल्कुल सूख नहीं गया है, लेकिन कब तक.

इसके अलावा इस क्षेत्र में दुनिया के चारों बड़े धर्म (इस्लाम, मसीही धर्म और बौद्ध धर्म के अलावा हिन्दू धर्म भी) सक्रिय हैं. हिन्दूस्तान में आधी सदी से अधिक समय तक हिन्दू मस्लिम तनाव अपनी चरम परिणितियों तक जा कर अब बँगला देश मुक्ति संग्राम के जरिये शायद ऐसी जगह आ रहा है जहाँ दोनो धर्मों के बीच एक नया सम्नवयपूर्ण सम्बंध संभव होगा. युरोपीय केन्द्रों से संचालित मसीही धर्म इस क्षेत्र में बहुत अधिक नहीं फ़ैल सका, लेकिन जहाँ वह अपने पाँव जमा सका (जैसे भारत के उत्तर पूर्वी कबाइली इलाके में) वहाँ उसने काफ़ी जहरीले बीज बोये. वियतनाम में उसका असर रहा है. लेकिन गोरी सभ्यता को मसीही धर्म से कहीं अधिक सहायता इस क्षेत्र के उस प्रभावशाली वर्ग से मिली है (यहाँ भी किसी हद तक अफ्रीकी शासक वर्ग से तुलना की जा सकती है) जिसने धर्म तो नहीं बदला, लेकिन भाषा, रहन सहन, पोशाक और उपभोग में गोरों की नकल करना सीख लिया है. यह एक तरह की असंस्कृतिकरण की प्रक्रिया है जो आधुनिकरण के नाम पर चलाई जा रही है. अगर यह सफल हो जाये तो किसी की कोई भाषा नहीं रह जायेगी, लोग बहुत कुछ उसी भाषा का इस्तेमाल करने लगेंगे जो किसी समय अँग्रेज साहबों के खानसामा साहबों के साथ इस्तेमाल किया करते थे. संभव है कि मेरी बात कुछ अत्युक्तिपूर्ण लगे लेकिन भाषा के छिछली और अर्थहीन होने के खतरे के बारे में कोई शक नहीं है. अभी ही हमारी भाषा बहुत हद तक पंगु हो गयी है. पारम्परिक जीवन में परिवर्तन के नाम पर रोज़ नये नये बाबा, सिद्ध, योगी, महायोगी और अवतार जन्म लेते रहेंगे. कीर्तन, भजन, जागरण, यज्ञ, मंदिरों में चढ़ावा, यह सब चलता रहेगा, बल्कि बलि की प्रथा फ़िर चल सकती है. लेकिन पारम्परिक धर्म के मूल्य नष्ट होने की कौन कहे, लोग धीरे धीरे भूलते जायेंगे कि कोई मूल्य थे भी. हिन्दुस्तान की गर्मी में, मई जून के महीने में आधुनिक व्यक्ति कोट पतलून पहने, टाई बाँधे, तो अब भी देखे जा सकते हैं. यह तो जंगलीपन भी नहीं है, आदमी का चिम्पांजी की सतह पर उतर जाना है.

संक्षेप में दक्षिण एशिया के क्षेत्र में एक ओर तो सामाजिक संगठन के विभिन्न स्तरों पर जमे हुए रूप हैं, दूसरी ओर विभिन्न पाराम्परिक धर्मों के परस्पर सम्बंधों में समन्वय की समस्या है, तीसरे समाज और धर्म दोनो में व्याप्त जड़ता है और चौथे गोरी सभ्यता का हमला है जो अप्रत्यक्ष साम्राज्यवाद का रूप लेने के बाद और भी तीव्र हो गया है. इस हमले की शुरुआत होती है अर्थव्यवस्था के तथाकथित आधुनिकीकरण से, जिसमें स्थानीय अर्थ व्यवस्था की पूरक और सहायक मात्र रह जाती है, मुख्यतः सस्ता श्रम और कच्चा माल देने वाली और नतीजे के तौर पर अन्ततः यही लक्ष्य पहली और आखिरी कसौटी बन जाता है, जिसमें आदमी चिम्पांजी से बहुत बेहतर स्थिति में नहीं रहता.

दुनिया के अन्य पाराम्परिक समूहों के सामने भी इसी तरह की चुनौतियाँ हैं, लेकिन किसी अन्य क्षेत्र में चारों एक साथ नहीं हैं. गोरी दुनिया ने जो विकल्प रखे हैं, उनके अलावा पारम्परिक समूहों के सामने एक ही विकल्प है, आन्तरिक परिवर्तन के द्वारा शक्ति और गतिशीलता हासिल करना. कैसे? इसका ज़वाब विभिन्न क्षेत्रों के लोगों को खुद ही खोजना पड़ेगा. दक्षिण एशिया में चुनौती सबसे गम्भीर है, क्या इससे यह सोचा जा सकता है दक्षिण एशिया के लोग दूसरों की अपेक्षा ज़्यादा जल्दी सचेत होंगे और कुछ करेंगे? मैं इसकी आशा करता हूँ, लेकिन इस आशा के कारण जितने वस्तुपरक हैं, शायद उतने ही वैयक्तिक भी. बहरहाल, कुछ न करने के नतीजे मैं जो देख पाता हूँ, उनको समझ लेने के बाद उन्हें स्वीकार करने की कल्पना तो मैं तभी कर सकता हूँ जब मैं खूद अपनी और अपने बच्चों की चिम्पांजी बनने की नियती को स्वीकार कर लूँ, जो जाहिर है मैं नहीं कर सकता.

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