ओमप्रकाश दीपक का लेखन कल्पना का हिन्दी लेखन जगत

एक प्रेम कथा (अपूर्ण)

ओमप्रकाश दीपक, 1972

टिप्पणीः यह एक अधूरी कहानी है या शायद नये उपन्यास का शुरु का अंश जो 1972 के कागज़ों के बीच में मिला था. क्योंकि लेखन ब्रिटिश दूतावास द्वारा वितरित प्रेस रिलीस के तारीख लगे कागज़ो के पीछे है उससे लिखने के वर्ष का अंदाज़ लगाया जा सकता है. मृत्यु से तीन वर्ष पहले शुरु की गयी इस कहानी को क्यों पूरा नहीं करना चाहा लेखक ने, इसका कारण नहीं मालूम. कहानी लिखना पहले शुरु कर के,बीच में से इसे दुबारा लिखा गया था. पहले लिखे अंश में जिस पात्र का नाम शोभा है, उसे दुबारा लिखने में रमा बना दिया गया है. जिस तरह विस्तार से विवरण लिखे गये हैं और एक बात शुरु करके, उसके आस पास की घटनाओं को जैसे लम्बा बताया गया है उससे लगता है कि शायद यह कहानी नहीं उपन्यास लिखने का प्रयास था. लेखक के पहले प्रकाशित उपन्यास "मानवी" की तरह इसमें भी तवायफ़ से प्रेम का जिक्र है.

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मामा से ज्यादा निकट का तो उनका कोई सम्बंधी था नहीं. माँ मर गयी थी जब शोभा पाँच छह साल की ही थी. अरविंद को नौकरी मिले करीब एक साल हुआ था जब पिता जी की मृत्यु हो गयी. पिताजी अगर कुछ और दिन जीवित रहते तो शायद अरविंद की शादी हो जाती. उन्हें अगर जरा भी आशंका होती कि उनकी मृत्यु निकट भविष्य में ही होने वाली है तो निश्चय ही अरविंद की शादी कर जाते.

बड़े वकील नहीं थे अरविंद के पिता, लेकिन चल जाती थी. अरविंद के जन्म के कुछ दिन बाद ही उसके बाबा जमींदार की मृत्यु हो गयी थी. थे तो गाँव के ही, लेकिन बेटे को उन्होंने शहर में रख कर पढ़ाया और वहीं वकालत करने को प्रोत्साहित किया. उनकी शिकायत थी कि जमींदारों की कोई हैसियत नहीं रही. काश्तकार तो क्या, हलवाहे भी मुँह लगते हैं. शहर में रह कर भी वकील साहब के लिए "घर" और "परिवार" की सभी धारणाएँ गाँव की हवेली के साथ जुड़ी थीं. जहाँ सुबह से दोपहर तक और शाम से रात देर गये तक दरबार सा लगता था, और खाना खाने के बाद तीसरे पहर "बड़े मालिक" आराम करते थे. अरविंद की ननिहाल वाले भी जमींदार ही थे और उसकी माँ को दहेज में जो ज़मीन मिली थी उसको ले कर वकील साहब के परिवार में काफी चर्चा होती, जो आम तौर पर बड़े मालिक के कान बचा कर. जमींदार साहब को अपने अलावा, और अपने बेटे की काबलियत के अलावा बहुत कम बातों में दिलचस्पी थी. समधियाने के बारे में कोई ज्यादा बात करे, इसमे तो नहीं ही थी. फिर भी घर में बहू का मान था, और वकील साहब ने जैसे ही कानून का इम्तहान पास कर के वकालत शुरु की जमींदार साहब की इच्छा के अनूसार बहू उनके साथ शहर आ गयी.

अरविंद के जन्म के समय वकीलिन को गाँव जाना पड़ा था. बड़े मालिक की इच्छा थी. पहली संतान का जन्म ख़ानदानी हवेली में होना जरुरी था. खूब जश्न हुआ था, ईनाम बाँटे गये थे लेकिन अरविंद की माँ मरते मरते बची थी. दाई डाक्टर जो कुछ थी, वही चमारिन थी जिसकी पुश्त दर पुश्त उस गाँव के हर घर में बच्चे जनाती आई थी. पहला बच्चा था फिर शायद उलटा था, और दिन भी कुछ ज्यादा चढ़ गये थे. कुछ भी हो घंटों तक खुद दाई की भी सांस गले में अटकी थी कि माँ बच्चे में से कोई भी बचेगा या नहीं. किस्मत से दोनो बच गये.

उसके बाद बड़े मालिक का शहर आना भी कुछ बढ़ गया. अब तक किराये का मकान था, लेकिन अच्छी बस्ती में, अच्छा बना हुआ था. ज्यादा पुराना भी नहीं था. बड़े मालिक ने उसे ही बेटे के नाम खरीद लिया. अब अरविंद की माँ को तीज त्योहार के मौकों पर बेटे को ले कर गाँव जाना पड़ता. साल में तीन चार महीने तो गाँव में ही काटने पड़ते. बड़े मालिक का संदेश आता जो किसी हुक्म से कम नहीं होता था. नौकर महाराजिन के सिर पर घर छोड़ कर जाना पड़ता.

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शराब पीना न पीना और शराबी होना न होना, इनमे कोई सीधा सम्बंध नहीं है. मुमकिन है कि आप साल, दो साल, चार साल, या और ज्यादा लगातार पीते रहें, रोज़ पीते रहें, और फिर न पियें, साल, दो साल, चार साल, या और न पियें, बिल्कुल न पियें. यार दोस्त बैठे पी रहें हों और आप के हाथ में नींबू पानी का गिलास हो. न सिर्फ आप को कोई शिकायत न हो, बल्कि आप को मज़ा आये यह देखने में कि आप के किस दोस्त पर किस और कितनी शराब का क्या असर पड़ता है और नींबू पानी का स्वाद लेते हुए आप याद करें कि आप के ऊपर पीने का क्या असर हुआ करता था. लेकिन यह भी मुमकिन है एक बार जहाँ आप के मुँह लगी, फिर घर के बरतन भाँडे तक बिकने की नौबत भले आ जाये, लेकिन शराब नहीं छूटेगी. फिर हो सकता है आप गबन करें, चोरी करें, पकड़े जायें तो जेल भी काट आयें, लेकिन रिहा हो कर निकलेंगे तो पहली तलाश वही होगी, शराब.

यह भी मुमकिन है कि आप शराबी न हों, लेकिन नशा आप पर बहुत जल्दी चढ़ता हो, और ऐसा भी हो सकता है कि आप कितनी भी पी जाएँ, आप की चाल से कोई भाँप न सके कि आप ने सूँघी भी है. यही बात उनके साथ भी होती है जो एक बार पीने के बाद फिर शराब के बिना रह ही नहीं सकते.

मुश्किल यह है कि आप किस श्रेणी में आते हैं, इसका पता पहले से नहीं चल सकता, पीने के बाद ही पता चलता है. जोखिम का काम है. लेकिन आदमी तो आदमी ठहरा. जाने कितने जोखिम यह जानते हुए भी उठा लेता है कि दरअसल उसे यह जोखिम उठाना चाहिये नहीं. आप ने किसी को शराब से तबाह होते देखा और जिंदगी भर के लिए तौबा कर ली. या आप ने किसी ऐसे को देखा जो कभी कभार यार दोस्तों के बीच बैठ कर पी लेता है, और कुछ खुशदिली के अलावा उस पर कोई असर भी नहीं पड़ता, और आप को लगा कि यह तो कुछ बुरा नहीं, मज़ेदार चीज़ ही है.

इसलिऐ रमन का कभी कभी पीना भी रमा को बहुत बुरा लगता था, तो इसमे अचरज की कोई बात नहीं थी. उनकी शादी के साल, डेढ़ साल पहले तक अरविंद ने कभी शराब नहीं पी थी. और रमा की नज़र में अगर दुनिया में कोई आदमी ऐसा था जिसे देवता कहने में कुछ विषेश अत्युक्ति नहीं थी, तो वह उसका बड़ा भाई था, अरविंद.

दोस्ती होने के बाद वह रमा का पहला जन्मदिन था. उस दिन क्या क्या किया जाए, इस पर कई बार बहस चली थी, लेकिन कुछ तय नहीं हो पाया था, सिवाय इसके कि अरविंद ने साफ कह दिया था वह छुट्टी नहीं ले सकता. इम्तहानों को सिर्फ दो हफ़्ते और हैं. साढ़े ग्यारह से चार बजे कालेज है. इस बीच का जो भी करना हो उसमे मुझे शामिल मत करो.

उस दिन फिर हुआ यह कि रमन उनके यहाँ सुबह दस बजे के करीब ही पहुँच गया. उसने देखा कि रमा का चेहरा ज़रा देर के लिए कुछ उतर सा गया, वह खाली हाथ गया था. लेकिन मौका देख कर एक क्षण के लिए रमा को अकेला पा कर रमन ने उसका कान अपने ओठों से छू दिया था, "जन्मदिन मुबारक हो". रमा ने कुछ सुना नहीं था, सिर्फ स्पर्श का अनुभव किया था, लजाई थी, और खुश हो कर मुस्कुराई थी. आवाज़ में कुछ भोली शरारत ला कर बोली थी, "दादा के पास जा कर बैठो. मैं अभी आई." रमन को जल्दी खाने की आदत नहीं थी. इसलिए अरविंद ने खाना खाया था. रमन ने थोड़ी सी खीर खायी थी और कुछ थोड़ी सी ज़िद करके रमा को भी खिलाई थी. रमा ने ख़ास तौर से खीर अपने हाथ से उसके और अरविंद के लिए बनाई थी. इसलिए उसने बार बार तारीफ करके पूछा कि कैसे बनाई है और रमा आँखें नचा कर बताने से इनकार करती रही. "तुम्हें खाने से मतलब ! कैसे बनी है इससे तुमको क्या !" फिर एक पल को रमन के चेहरे पर नज़र गढ़ा कर चुप देखा, नज़र झुकाली और बोली, " अच्छी लगी है तो फिर बना कर खिला दूँगी." लेकिन नज़र से कह गयी थी, इतने अधीर क्यों होते हो, जितने पकवान बनाना जानती हूँ, सब बना बना कर खिलाऊँगी, तुम्हें खिलाने के लिए ही तो बनाना सीखा है.

अरविंद खाना खा चुका तो रमन ने कहा, चलो तुम्हें कालेज छोड़ देता हूँ, और रमा से बोला,"तुम भी चलो, थोड़ी सैर हो जायेगी. वापसी में तुमको छोड़ कर मैं दूकान चला जाऊँगा." लेकिन अरविंद को छोड़ने के बाद रमन ने गाड़ी हज़रतगंज की तरफ़ घुमा दी और कपड़ों की एक बड़ी दूकान के सामने खड़ी कर दी. एक दिन पहले वह चार साड़ियाँ छाँट कर अलग रखवा गया था कि रमा को आखिरी पसंद के लिए साथ ले आयेगा. गाड़ी से उतरते हुए रमा को बताया तो वह खड़ी हो गयी, "आप भी कैसे हैं ! अपने लिए उपहार भी कोई खुद पसंद करता है ? आप जो पसंद करते वही मेरे लिए सबसे सुंदर होती." यह आखिरी वाक्य गले में अजब सी नरम मिठास ला कर रमा ने ऐसे अंदाज़ से कहा जिसका इस्तेमाल करना सिर्फ जवान लड़कियाँ ही जानती हैं, अपने प्रेमियों से बात करने में.

रमन खुश हुआ. फिर भी उसने सफाई दी "और कोई चीज़ होती तो मैं खुद पसंद कर लेता. लेकिन साड़ियों का रंग का चुनाव तो तुम खुद ही तय कर सकती हो. मैं भी कर सकता हूँ, लेकिन तुमको सामने खड़ा करके ही !"

"धत!",रमा ने कहा, जैसे लड़कियाँ अक्सर करती हैं, जब उन्हें कोई बात अच्छी लगती है, लेकिन साफ़ नहीं कह सकतीं.

दोनो दुकान में दाख़िल हुए थे, तभी रमन की गाड़ी के पीछे एक और बड़ी, चमचमाती हुई गाड़ी आ कर खड़ी हुई थी, और तीन जने उसमे से उतरे थे, दो पुरुष और एक युवती. एक पुरुष के साथ युवती दूकान के अंदर चली गयी. दूसरे ने रुक कर वर्दी पहने हुए शोफर से कहा, "यहाँ शायद कुछ वक्त लगे, तुम इतने में सिगरेट ले आओ. फिर वह भी दूकान के अंदर चला गया.

रमन ने चारों साड़ियाँ निकलवा ली थीं और पीछे की दीवार पर लगे आदमकद आइने के सामने खड़ी हो कर रमा हर साड़ी को कमर, कंधे और गले के पास लगा कर देख रही थी कि कौन सा रंग उस पर ज्यादा फबेगा. रमन बगल में खड़ा मुस्कुरा रहा था. उनके पीछे आये युवक युवती साड़ियों के लिए सिल्क देख रहे थे. फिर कई चीज़े करीब करीब एक साथ हो गयीं. एक साड़ी का रंग रमा को ज्यादा अच्छा लग रहा था. उसे तह किये हुए ही, गले के पास लटका कर रमा ने मुड़ कर रमन से पूछा, "यह सुंदर है न ?"

इसके कुछ सेकेंड पहले ही बड़ी गाड़ी से उतरा दूसरा पुरुष दूकान के अंदर आया था, अपने साथियों को सिल्क के थानों पर झुका देख कर एक नज़र पूरी दूकान पर दौड़ाई थी और रमन को देख कर हाथ हिलाया था, "हेलो, बाय." रमन वैसे ही बोला था, "हेलो राजा", और रमा की तरफ मुड़ गया था, "हां, यह साड़ी तुम पर अच्छी लगेगी." लेकिन रमा उसकी बात सुन नहीं रही थी. सिल्क देख रही युवती ने रमा को देख लिया था, और रमा ने उसे. युवती एक सेकेंड हिचकी होगी, फिर उसने मुड़ कर राजा से कहा, "यहाँ कुछ नहीं, चलिये अमीनाबाद चलें." और बिना उत्तर का इन्तजार किये, बाहर को चल पड़ी थी. उसके साथ खड़ा पुरुष बिना कुछ बोले उसके साथ ही बाहर चला गया. राजा ने एक बार भौंहें तिरछी करके रमन और रमा को बारी बारी देखा, फिर भौंहें सीधी करके बाहर निकल गया.

रमा का चेहरा इतनी देर में रोष से तमतमा आया था. मुट्ठियां साड़ी पर कस गयी थीं, उंगलियां कांप रहीं थीं. फिर एकदम चौंक कर उसने साड़ी एक झटके में रमन को पकड़ा दी."इसी को ले लो." उसकी आवाज़ कांप रही थी. उसे सम्भालने का वक्त देने के लिए रमन ने साड़ी "उपहार डिब्बे" में बांधने के लिए दे दी, पैसे दिये, और फिर रमा की बाँह पर उँगलियां रख कर धीरे से बोला, "चलो." रमा स्थिर हो गयी लगती थी, लेकिन कुछ बोली नहीं. वे बाहर निकले तभी वह बड़ी गाड़ी चली, और तेज़ी से निकल गयी. दरअसल इतनी देर तक वह युवती और उसके दोनो साथी गाड़ी में ही बैठे थे, शोफर सिगरेट ले कर लौटा तो चले.

रमन ने साड़ी का डिब्बा पीछे की सीट पर रख दिया. गाड़ी चलते ही दोनो ने करीब करीब एक साथ सवाल पूछा, "वह कौन था ?","कौन थी वह ?" जवाब एक पल की खामोशी के बाद पहले रमा ने दिया, आवाज़ में जाने कैसी कड़वाहट भर कर, "वही, जिसके पीछे दादा दो साल से पागल हैं." रमन ने ओंठ गोल करके सीटी बजाने जैसी हल्की सी आवाज़ की. "लेकिन वह कौन था जिसे तुमने राजा कहा था ?"

"राजा ही है. यानि ताल्लुकदार. अंग्रेज़ी राज से बाप दादों को "राजा बहादुर" का ख़िताब मिला हुआ था. मेरे साथ पढ़ता था, तो लड़के राजा, राजा कह कर चिढ़ाया करते थे. बाप मरे काफी अरसा हो गया. जबर्दस्त कोठी है. यहीं लखनऊ में पड़ा रहता है. नाम है इंद्रजीत नारायण सिंह."

"और उसके साथ दूसरा जो था ?"

"उसे मैं नहीं जानता. मुमकिन है कोई दोस्त या रिश्तेदार हो, या कोई मुसाहब. वैसे चाल ढ़ाल से तो मुसाहब नहीं लगता था."

बाकी रास्ता जल्दी ही ख़ामोशी में कट गया. रमन ने सोचा था घर जा कर वह रमा से कहेगा कि साड़ी पहन कर दिखाये. फिर कुछ प्यार जतायेगा, कुछ छेड़खानी करेगा. लेकिन गाड़ी रुकते ही रमा दरवाज़ा खोल कर उतर गयी और दरवाज़ा बंद करते हुए बोली, "शाम को जल्दी आ जाना, इंतज़ार मत करवाना."

"अरे ज़रा ठहरो तो!" रमन गाड़ी से निकल आया. साड़ी का डिब्बा पीछे की सीट से उठा कर रमा के हाथ में देते हुए थोड़ा सा झुका और अपने ओंठ उसके गाल से लगा कर बोला, "मेरा प्यार, और मेरे मन की सारी शुभकामनाएँ." रमा ने एक क्षण के लिए अपना सिर उसकी छाती से टिका दिया, "मैं भी कैसी हूँ!" उसकी आवाज़ भर आयी, "तुम्हारे प्यार की भेंट ही भूले जा रही थी. आज शाम को यही पहनूँगी." सिर उठाया तो उसकी आँखें भी डबडबायी सी थीं. अब तुम जाओ, कह कर वह बरामदे की सीढ़ियाँ चढ़ गयी. दरवाज़े पर खड़े हो कर उसने घंटी दबाई. रमन ने गाड़ी में बैठ कर सिगरेट जला ली. नौकर ने दरवाज़ा खोला तो रमा ने मुड़ कर हाथ हिलाया. एक हल्की सी मुस्कान भी ओंठों पर आयी. रमन ने सिगरेट का धुँआ मुँह से निकालते हुए बायाँ हाथ हिलाया और गाड़ी आगे बढ़ा दी.

शाम तक रमन बार बार उस युवती के बारे में ही सोचता रहा. उसे ख़ुद भी ऐसा नहीं लगा कि वह उसके बारे में इस लिए सोच रहा है कि ज़रा देर को उड़ती उड़ती उसको देखने पर ही उसके मन में उस युवती के बारे में कोई गहरी दिलचस्पी पैदा हो गयी थी. रमा इस बारे में विषेश कुछ कहना पसंद नहीं करती थी, पर उसने बताया था कि कोई तवायफ है जिससे अरविंद शादी करना चाहता है. लेकिन वह राज़ी नहीं होती. अरविंद रमा से उम्र में छः सात साल बड़ा था, जिसका मतलब था कि उसकी उम्र तीस के आस पास हो गयी थी. किसी लड़की से उसे कभी प्रेम नहीं हुआ था, और बाद में जब लोग उसके पास विवाह प्रस्ताव ले कर आते तो उसका सीधा जवाब होता, "मुझे शादी नहीं करनी." कभी कभी ऐसे अवसरों पर बातचीत में कुछ चिढ़ और ख़ीझ भी पैदा हो जाती. रमा अगर कभी पूछती, तो कहता, "पहले तेरी शादी तो हो जाये." एक बार ढ़ीठ हो कर बोली अच्छा मेरी भी कर दो, लेकिन अपनी तो करो, तो अरविंद ठहाका लगा कर हँसा था, "कोई लड़का पसंद आ गया है क्या ? या लड़का मुझे ही खोजना पड़ेगा ? अकेले दादा के साथ रहते रहते अब थक गयी है ?" रमा हँसी थी, लजाई थी, ख़ीझी थी, फिर चुप रह गयी थी.

क़रीब दो साल पहले वे एक शादी में गये थे. मामी के भाई की शादी थी. निकट सम्बंधी के नाम पर उनके वह मामा जी ही थे. वैसे उनके यहाँ भी, पहले से ही, ऐसा कुछ ज़्यादा आना जाना नहीं था. रमा पाँच छः साल की थी तभी मां की मृत्यु हो गयी थी. आठ नौ साल पहले अरविंद की नौकरी लगी थी, उसके कुछ महीनों के अंदर ही पिता जी की भी मृत्यु हो गयी थी. पिता जी अगर कुछ और दिन ज़िंदा रहते तो यकीनन अरविंद की शादी कर देते. अगर उनके मन में ज़रा भी आशंका होती कि उनकी अचानक ही मौत हो जायेगी, तो भी वे घर में बहू ले आते. लेकिन उस साल गोमती में बाढ़ ऐसी आई थी कि नालियों का पानी बह कर नदी में जाने के बजाय बाढ़ के पानी के साथ वापस घरों में फैलने लगा था. बाढ़ का पानी उतर जाने के बाद शहर में चूना डालने और टीके लगाने के बावजूद शहर के कई हिस्सों में हैजा फैल गया था. वकील साहब को बाढ़ निकलने के बाद दो तीन दिन ही हुए थे, तीसरे पहर एक अदालत में ही तबियत कुछ खराब हुई, बाहर निकलते निकलते उलटी होने लगी, घंटा बीतते बीतते, तन बदन की सुध नहीं रही. साथ के वकील मुंशी सब हट हट खड़े हुए. किसी ने टेलीफोन करके अस्पताल की गाड़ी मंगवाई, उसमे भी डेढ़ दो घंटे लग गये. मुंशी जी ने शाम को घर जा कर अरविंद और रमा को खबर दी. लेकिन छुतहे रोग अस्पताल में अंदर जाने की इज़ाजत नहीं मिली. रात गये तक बाहर इंतज़ार करने के बाद यह पता भी नहीं चल सका कि हालत कैसी है तो दोनो घर लौट गये. दूसरे दिन सुबह से फिर वही इंतज़ार. ग्यारह बजे के क़रीब डाक्टर से मुलाकात होने पर अरविंद को इतना भर पता चल सका कि "कोई उल्लेखनीय सुधार नहीं हो रहा है." शाम को अँधेरा होते होते वकील साहब की लाश घर आ गयी.

तब से अरविंद एकदम बहुत गंभीर हो गया था. पहले भी घर में पिता जी की उपस्थिति बहुत कुछ एक अहसास के रुप में ही होती थी. वे सुबह जल्दी ही बाहर अपने दफ्तर में जा कर बैठ जाते. कभी मुवक्किल आये रहते, वरना वकील साहब खुद ही मुकदमों के सिलसिले में फाईलें किताबें देखते. या टाइपिस्ट को, सुबह शाम एक घंटे के लिए आता था, कुछ लिखाते. उनके उठने के पहले ही रमा स्कूल चली जाती. पहले तो रमा और अरविंद साथ ही निकल जाते थे, फिर अरविंद विश्वविद्यालय में चला गया, वो देर से जाने लगा. शाम को कचहरी से लौटने के बाद भी, चाय और भोजन के बीच का वकील साहब का ज़्यादा वक्त बाहर के कमरे में ही गुज़रता. घर में रहने पर भाई बहन ज़्यादातर अपने में ही वक्त गुज़ारते. अरविंद के दोस्त ज़्यादा नहीं थे. दो तीन जो थे, रमा की उम्र छोटी होने से, उनके हँसी मज़ाक में कोई खलल नहीं पड़ता और वे उससे छोटे मोटे काम लेने के अलावा, "पानी पिला ठंडा", "चाय बना दे", "दीनू को बोल जिन्जर की तीन बोतलें ले आये", उससे छेड़ ख़ानी भी करते रहते. रमा की सहेलियाँ पास पड़ोस की ही दो तीन लड़कियाँ थीं. कम ही इकट्ठा होतीं. आतीं तो अरविंद के सामने झिझकी रहतीं. इसलिए अरविंद दूसरे कमरे में जा कर बैठा रहता. लेकिन अलग बैठे बैठे उन लड़कियों का खिलखिलाना, बातें करते करते रेल के इंजन की सीटी की तरह किसी एक का अचानक चीख पड़ना, यह सब सुनते रहना उसे अच्छा लगता था.

गाँव के साथ तो वकील साहब के रहते ही उनका नाता कुछ रह नहीं गया था. बस एक रसोई बनाने वाली महाराजिन थीं जिन्हें पत्नी की मृत्यु के बाद वकील साहब ने गाँव से बुला लिया था, और एक दीनू था, अरविंद से शायद दो तीन साल बड़ा, जो अब गाँव वापस जाना चाहता था. पंडिताइन पहले गाँव की हवेली में रसोई बनाया करती थीं, और इसलिए वकील साहब को हमेशा छोटे मालिक ही कहतीं. बड़े मालिक तो अरविंद के दादा थे, जमींदार साहब. पंडित पहलवान थे, और बड़े मालिक के ख़ास मुसाहब. जमींदार साहब हवेली के बाहर निकलते तो घोड़ी पर, चाहे दस कदम ही जाना हो, और पंडित उनकी रक़ाब के साथ साथ होते, सिर पर धुर्रेदार साफ़ा, कमर में कारतूस की पेटी, कंधे पर दुनाली. पति पत्नी में पटती नहीं थी, पंडिताइन को जाने कैसे पता चल गया था कि वसूली के लिए या और किसी काम से पंडित बाहर जाते तो घूम फिर कर रात महगवाँ में ही काटते, एक बेदा तेलिन के घर. पंडिताइन को "उस नीच कौम की पतुरिया" और उससे भ्रष्ट हुए पति से तो शिकायत थी ही, अपने से और अपने भगवान से भी कम शिकायत न थी, पंडिताइन के कोई संतान न थी.

चिरौंजी के घर हर साल नहीं तो हर दूसरे साल बच्चा हो ही जाता था. पंडित के पुरखे हवेली के पुरोहित थे और उसी ख़ानदान के रिश्ते में पंडित के एक चाचा बड़े मालिक के वक्त तक उस घर के पुरोहित रहे. लेकिन चिरौंजी की पुश्त दर पुश्त हवेली के कूँए से पानी भरती, सफाई करती, बर्तन माँजती या मालिकों की ज़मीन पर हलवाही करती चली आयी थी. कभी मालिक खुश होते तो कुछ ज़मीन अधिया पर मिल जाती. पंडित पंडिताइन को हवेली में ही रहने की जगह मिली हुई थी, लेकिन चिरौंजी साथ ही खपरैल वाले घर में रहता था. अरविंद जब हुआ था और वकीलिन स्वस्थ्य हो कर शहर जाने लगी थीं तो महरिन ने एक दिन तेल मलते हुए ख़ुद ही चिरौरी की थी कि मुन्ना को खिलाने के लिए नौ साल के गनेसी को अपने साथ शहर लेती जायें. वकीलिन के मन में किसी को ले जाने की बात तो पहले से ही थी, उन्होंने हाँ कर दी.

जमींदार साहब इतना समझते रहे हों या नहीं कि जमींदारी उनकी पीढ़ी के बाद चलने वाली नहीं थी, इतना समझते थे कि बेटे को अंग्रेज़ी पढ़ाना जरुरी है. कुछ दिन घर में एक मौलवी साहब को उर्दू, फारसी और हिसाब पढ़ाने के लिए लगाया, अंग्रेज़ी की दो किताबें ख़ुद पढ़ायीं. फिर शहर के एक स्कूल में दाख़िल करा के छात्रावास में रख दिया. हेडमास्टर साहब जान पहजान के थे. "एन्ट्रेंस" पास किया, तभी शादी कर दी. उसके बाद ही किराये का अलग घर ले दिया, और बहू को भी साथ भेज दिया. शादी से जमींदारी भी कुछ बढ़ी थी, दहेज में कुछ ज़मीन भी मिली थी. उन दिनों सोलह साल की लड़की का घर सम्भालना कोई ऐसी बड़ी बात नहीं समझी जाती थी, फिर भी बेटा बहू अकेले रहेंगे, यह सोच कर जमींदार साहब ने शुरु में पंडित को साथ भेज दिया था. उधर वकीलिन के मायके वालों को चिंता थी कि शहर में बेटी अकेली रहेगी. उन्होंने घर की एक पुरानी नाइन को कुछ दिन बेटी के पास रहने भेज दिया. पंडित का दिल शहर में नहीं लगा. फिर नाइन तो थी ही, पंडित जल्दी ही गाँव वापस लौट गये.

अरविंद होने वाला था तो वकीलिन की तबियत बहुत ख़राब रहती थी. रसोई में तो बैठ ही नहीं सकती थी. मायके से बुलावा आया तो नाइन भी साथ चली गयी. लेकिन प्रसव के लिए ससुराल की हवेली में ही जाना पड़ा. अकेले बेटे की पहली संतान का जन्म ख़ानदानी हवेली में ही हो, यह ज़रुरी था. बाद में बहुत जश्न हुआ था, ईनाम बाँटे गये थे. रात को नाच हुआ था जिसके लिए दस कोस दूर कस्बे से एक मशहूर तवायफ बुलाई गयी थी. लेकिन वकीलिन मरते मरते बचीं थीं. गाँव में दाई बस एक बूढ़ी चमाइन थी, और उसकी अधेड़ बहू जो हवेली से ले कर चमर हट्टी तक गाँव के हर घर में बच्चे जनाती थी. पीढ़ी दर पीढ़ी सास बहू यही करती आयीं थीं. पहला बच्चा था, उलटा था, दिन कुछ ज़्यादा चढ़ गये थे और वकीलिन की काठी भी ऐसी मज़बूत नहीं थी. कुछ देर को तो दाईयों की भी जान गले में आ गयी थी कि जच्चा बच्चा में से कोई भी बचेगा कि नहीं. किस्मत थी, दोनो बच गये.

"छोटे मालिक" बीच में ससुराल भी जाते रहे, गाँव भी. बीच में गर्मियों की छुट्टियाँ पड़ीं थीं और उन्होंने "एफ़ए" पास कर लिया था. तब भी ईनाम बाँटे गये थे लेकिन असल जश्न तो अरविंद के जन्म पर हुआ था. तो भी, कई महीने उनको एक हिंदू भोजनालय में खाना खाना पड़ा था. इसलिए अरविंद करीब तीन महीने का था, तो जमींदार साहब ने बहू को बेटे के साथ शहर वापस भेज दिया. साथ में था गनेसी.

बच्चे तो वकीलिन को शायद हर साल होते, लेकिन मायके की नाइन गुर सिखा गयी थी, कुछ दवाएँ भी दे गयी थी. वकीलिन जब भी मायके जातीं, दवा ले आतीं. लेकिन बार बार दवाओं के इस्तमाल से वकीलिन की सेहत चौपट हो गयी, हाँ शरीर ज़रुर फूल गया. अरविंद थोड़ा बड़ा हो गया तो गनेसी को उसे खिलाने की भी ऐसी ज़रुरत नहीं पड़ती थी, इस लायक हो गया था कि ऊपर का सारा काम कर लेता था. तभी एकदम सारा सिलसिला गड़बड़ा गया था. उस साल सर्दियां ख़तम होते होते, महूऐ के पेड़ों में फ़ूल आने शुरु हुए तो पूरे थाने के गाँव में प्लेग फैला था और शुरु हुआ था बड़े मालिक की हवेली से. पहले हफ्ते में ही मालिक मालकिन दोनों तड़प तड़प कर मर गये थे. न कोई देखने वाला, न कोई दवा दारु. सारे लोगों ने गाँव छोड़ कर बाहर खेतों में झप्पर डाल लिये थे. तो भी आधा गाँव एक महीने के अंदर साफ़ हो गया. चिरौंजी की घरवाली समेत उसका लगभग सारा परिवार भेंट चढ़ गया. गनेसी तो शहर में था. उसके अलावा चिरौंजी बचा था और दीनू.

माता पिता दोनो के गुज़र जाने की ख़बर वकील साहब को तब लगी जब पंडित पंडिताइन शहर गये. सब लोग तो रोग फैलते ही गाँव छोड़ गये थे, चिरौंजी और पंडिताइन ये छोड़ कर कैसे जा सकते थे. मालिक मालकिन की बीमारी में कुछ कर नहीं सकते थे. शहर से डाक्टरी गाड़ी आँठवें दिन आयी थी तब तक मालिक मालकिन समेत गाँव में सोलह आदमी मर गये थे. जब तक जान रही चिरौंजी पानी भरता, सफाई करता रहा, पंडिताइन दोनो वक्त पतली खिचड़ी बना कर कोशिश करती कि मालिक मालकिन के सूजे गले में दो चार कौर उतार दें. चौथे दिन सुबह मालिक गये, शाम सूरज डूबते डूबते मालकिन. गाँव में वैसे तो कोई आता नहीं था. पंडित ने एक बार तो गले में कारतूस की पेटी डाल कर दुनाली उठायी, फिर रख दी. गाँव के बाहर छप्परों में जा कर बिना किसी की तरफ देखे चलते चलते ही ज़ोर से बोलते गये, "बड़े मालिक सरगवास हो गये हैं. रियाया में बिमारी वाले घर और बच्चे बूढ़े जनाना छोड़ कर सब जवान मर्द हवेली में हाजिर हों."

सब की फटी फटी आँखों मे डर समाया था. गाँव के बाहर भी बीमारी अचानक कहीं प्रकट हो जाती, तो दूसरे लोग अपने छप्पर वहाँ से हटा ले जाते. फ़िर भी घंटे भर में काफ़ी लोग हवेली में जमा हो गये, ख़ामोश, डरे हुए, सहमी हुई आँखों से सुनसान गलियों में गुजरते हुए, अपने खाली घरों पर एक उड़ती हुई नज़र डाल कर जल्दी जल्दी कदम बढ़ाते. हवेली में उनकी ख़ामोश मौजूदगी के बीच एक कमरे से मालकिन की रुंधती हुई कराह बहुत धीमी होने पर भी जैसे सारी हवेली में गूँजती थी. मालिक की अर्थी के लिए भी एक बाँस की चारपाई की पटियां निकाल लीं, ऊपर नीचे सफ़ेद चद्दरें डाल कर बाँधने के लिए भी चारपाई की मूंज का ही इस्तेमाल करना पड़ा. अंतिम क्रिया पंडित जी ने खुद ही कर दी.

दूसरे दिन कुछ लोग अपने आप ही आ गये, जाने कैसे यह ख़बर फैल गयी कि मालकिन रात गुज़र गयीं. पंडित पंडिताइन दस दिन तो गाँव के बाहर छप्पर डाल कर पड़े रहे. दसवें दिन पंडित नहा कर मंत्रशुद्ध हुए, गाँव के ही पाँच ब्राह्मण खिलाये, और दूसरे दिन पति पत्नी दोनो पाँच कोस स्टेशन पैदल जा कर शहर के लिए रेल चढ़ गये. वह भी ग़नीमत हुई, क्योंकि अगले दिन ही रेल का डाक्टर आ कर स्टेशन के लोगों को टीका तो लगा ही गया, बड़े दफ्तर से हुक्म भी आ गया कि गाड़ियाँ निकालने के लिए जरुरी कर्मचारियों को छोड़ कर बाकी कर्मचारियों को छुट्टी दे कर बीमारी के इलाके के बाहर भेज दिया जाये. प्लेग के इलाके के दस मील आगे तक के किसी स्टेशन पर गाड़ियाँ न रुकें, इन स्टेशनों के लिए या इन स्टेशनों से सफ़र के लिए कोई टिकट जारी न किये जाएँ. पंडित पंडिताइन उस दिन शहर न निकल जाते तो फिर अगले डेढ़ महीने तक गाँव में ही फँसे रह जाते.

वकील साहब को गाँव में प्लेग फैलने की ख़बर अखबार से मिली थी. जमींदार साहब को चिट्ठी डाल दी थी कि अम्मा को ले कर शहर आ जाईये. जवाब का इंतज़ार कर रहे थे, तभी पंडित पंडिताइन आ गये. उसके भी करीब डेढ़ महीने के बाद गाँव जाना हो सका. गर्मी जब बढ़ी और आम के पेड़ों पर केरियाँ आने लगीं, तब कहीं रोग थमा.

अपने बचपन के बारे में अरविंद के दिमाग में सबसे ज़्यादा उन्हीं दिनों का असर था. कुछ अलग अलग, धुँधली सी यादें उसके पहले की भी थीं. रेलगाड़ी का सफ़र. जहाँ उनको उतरना होता था उस स्टेशन का नाम था "चपरा रोड". स्टेशन तो छोटा ही था, लेकिन गाड़ी काफ़ी देर रुकती थी, इंजन पानी लेता था. रेल से उतर कर प्लाटफारम पर रखे सामान पर बैठे बैठे, आदमी के बराबर मोटे नल को घुमा कर इंजन के ऊपर ले जाना, फ़िर उसमें से गिरती हुई पानी की मोटी धार को गिरते देखना, यह उसे याद था. फिर रेल का चलना, गार्ड की सीटी और हरी झंडी, इंजन की कान फाड़ने वाली सीटी के साथ नीचे "छू" करके भाप का निकलना, एक गोल जैसे डिब्बे में से लोहे की एक मोटी छड़ का निकलना और उससे जुड़े हुए इंजन के छोटे बड़े पहियों का घूमना. एक धीमा चक्कर लगता पहले, बस दो तीन चक्कर से ज़्यादा कहाँ दिखता था. इंजन का ड्राइवर और खलासी, ये तो किसी और ही दुनिया के लोग दिखते थे. कोयला झोंकते वक्त दिख जाने वाला इंजन की भट्टी का दहकता लाल रंग. कितनी सारी मोटी पतली नलियां, और उनके साथ लगी घड़ियाँ. किसी पुराने किस्म के दिये जैसी लम्बी कुप्पी ले कर खलासी का जगह जगह तेल डालना.

स्टेशन का नाम चपरा रोड क्यों था यह उसकी समझ में कभी नहीं आया. जोड़ जोड़ कर उसने पढ़ना सीख लिया था तो पिता जी से पूछा था और एक बार कुछ डरते डरते बाबा से भी. जमींदार साहब से वह बहुत डरता था, शायद इसलिए कि उनसे सभी डरते थे. एक दिन नाश्ता करते वक्त उसे देख कर उन्होंने गोद में बिठा लिया था, और इतना हलुआ उसके सामने रख दिया था कि वह आधा भी नहीं खा पाया था. जमींदार साहब बड़े दुलार से उसे खिलाते रहे. उस दिन से अरविंद का डर कुछ कम हो गया था. लेकिन कुछ ही, क्योंकि ज़्यादातर तो जमींदार साहब का ध्यान उसकी तरफ जाता तो किसी को आवाज़ देते, ऐ, ले जाओ ज़रा मुन्ना को घुमा लाओ थोड़ी देर या फ़िर, मुन्ना को अंदर ले जाओ, खाने का या नाश्ते का वक्त हो गया, भूख लगी होगी.

पिता और बाबा दोनो ने उसे बता दिया था कि स्टेशन के साथ लगे गाँव का नाम चपरा है जो वह जानता था. उन्होंने यह भी बता दिया कि "रोड" माने सड़क. लेकिन चपरा सड़क माने क्या यह उसकी समझ में नहीं आया था. अटकल लगा कर उसने मतलब लगाया था कि चपरा से आगे सड़क जाती है. कंकड़ की सड़क स्टेशन से उनके गाँव होते हुए कस्बे तक जाती थी जहाँ तहसील थी, काँजी हाउस था, मिडिल स्कूल था, और एक सरकारी दवाखाना भी था, जो आम तौर पर तभी खुलता था जब आसपास किसी गाँव में फौजदारी होती और लाशें आतीं, या ऐसे लोग जिनके हाथ पाँव, सिर, पसलियाँ लाठी की मार से टूटे होते. मामूली चोट वाला तो किसी अस्पताल जाने के बजाय गाँव छोड़ कर किसी रिश्तेदार के यहाँ चला जाता था, क्योंकि अस्पताल में मरहम पट्टी से अगर जान बच गयी तो मुक़दमे में फँसना पक्का था.

तहसीलदार, नायब तहसीलदार, थानेदार, कानूनगो पोस्टमास्टर, हेडमास्टर इनको और इनके परिवारों को तो डाक्टर साहब देख ही लेते थे, थाना तहसील के मुंशी बाबुओं में भी अगर बुखार दो तीन दिन न उतरता तो डाक्टर साहब देख लेते थे. बाक़ी यूँ तो किसी की आसानी से हिम्मत नहीं पड़ती थी, दवाख़ाने में जाने की, एक तरफ थाना तहसील की इमारते थीं और दूसरी तरफ डाक़खाना और काँजीहाउस. कभी कोई जाता तो कम्पाइन्डर के पास मौसमी बुखार, पेचिश, खाँसी वगैरा बँधी हुई बीमारियों की बँधी हुई दवाएँ थीं. कभी कभी इलाके के किसी जमींदार के यहाँ से कसा हुआ इक्का आ जाता तो रात बिरात जब भी हो डाक्टर साहब को जाना पड़ता इस डर से कि न जाने पर पता नहीं किसी दिन कोई लठैत भेज कर हाथ पैर तुड़वा दें. इसमें भी छोटे मोटे मामलों में कम्पाउंडर के जाने से काम चल जाता, लेकिन बड़ी आसामी का मामला है या कोई जमींदार खुद आये या किसी घर के आदमी को भेजे और इसरार करे तो डाक्टर साहब को जाना पड़ता था.

कस्बे के दस कोस गाँव में प्लेग की खबर डाक्टर को लगी ही तीसरे दिन. दवाख़ाने में न टीके थे, न और दवाई. डाक्टर साहब ने शहर रपट भेजी, गनीमत थी पिछले साल शहर से सीधे कस्बे आने वाली सड़क पर बीच के कच्चे रस्ते पर भी बजरी पड़ गयी थी और दिन में दो बार शहर से बस आने जाने लगी थी. बस से कस्बे वालों को तो काफ़ी सुहीता हो गया था. लेकिन रास्ते पर सड़क में गढ़्ढ़े थे. दुहेजु बसों की पुरानी कमानियां. खूब हिचकोले लगते. हफ्ते में तो एक आध बार कोई न कोई सवारी ऐसी होती ही जिसे चक्कर आ जाता, उलटियाँ होने लगती. अगले दिन शहर से कुछ टीके दवाएँ आ गयी थीं, एक डाक्टर कम्पाउंडर के साथ एक गाड़ी भी आई थी, लेकिन तब तक महामारी रुद्र रुप धर चुकी थी. उन दिनों कस्बे में डाक्टर एक बंगाली था, भला आदमी. वह सबसे कहता फिरता, "जूता, मोज़ा पहनो, पैंट नहीं है तो पैजामा पहनो, नंगे पैर मत चलो, घुटनो के ऊपर तक पैर ढ़के रहो, प्लेग नहीं होगा." पहले से ही सनकी मशहूर था एक सनक और उसके नाम से जुड़ गयी. वह तो हर साल जब ज्वार के महीने में जब मलेरिया फैलता तो हर किसी को कहता, "मसहरी है ? नहीं है तो पतली चद्दर ले कर सोओ. वह भी नहीं तो सोने से पहले हाथ पाँव, गर्दन, मुँह पर अच्छी तरह सरसों का तेल मल लो. मच्छर काटेंगे तो मलेरिया होगा." इन्ही बातों से वह सनकी मशहूर हो गया था.

हवेली में मसहरी सिर्फ बड़े मालिक के पलंग पर साल में दो तीन महीने लगती थी, मच्छर ज़्यादा होते तो जमींदार साहब को नींद नहीं आती थी. या उन दिनों अगर वकील साहब आते तो उनके पलंग पर. लेकिन जमींदार साहब ने ज़िन्दगी में न कभी मोज़े पहने, न कभी पैंट या पैजामा. उनके कान तक कभी डाक्टर की बात भी नहीं पहुँची. घर बाहर हमेशा उनकी एक ही पोशाक रहती थी. पाँव में पम्प जूते, नाखुनी किनारे की महीन धोती, जिसे बाँ धने के उनके ढ़ंग में ऐसी नफ़ासत थी जो वकील साहब भी नहीं सीख सके. फिर भी, धोती पहन कर ही जमींदार साहब घुड़सवारी करते. मालगुज़ारी जमा करने तहसील जाते तो रेशमी फेंट वाली पगड़ी बाँध कर. गर्मियों में कुर्ता मलमल का या तज़ेब का होता, सर्दियां आती तो खड्डी पर ख़ास तौर से बने सूत और ऊन मिले कपड़े का. सर्दी कम रहती तो रुई की बंडी पहनते, ज़्यादा बढ़ जाती तो बंद गले का लम्बा कोट.

उस दिन की कई तस्वीरें अरविंद की याद में खिचीं हुई थीं. स्टेशन पर उतर कर उसकी मां ने आंचल माथे के कुछ नीचे कर लिया था, दीवाल की तरफ मुँह करके संदूक पर बैठ गयी थीं. उस दिन इक्कों के अलावा वकील साहब के लिए घोड़ी भी आई थी. उनको यूँ भी घुड़सवारी की आदत नहीं थी, जमींदार के बेटे थे इसलिए कभी कभी चढ़ लिया करते थे. कुछ अधीर सी खड़ी रह रह कर टाप मारती घोड़ी को देख कर लगा था जैसे वह कसी हुई ज़ीन पर उनका नहीं, बड़े मालिक का इंतज़ार कर रही थी. जो एहसास उन्हें इतने हफ्तों में भी नहीं हुआ था, वह अचानक घोड़ी की खाली ज़ीन को देख कर हुआ, कि पिता के न रहने से उनकी अपनी ज़िन्दगी में कितनी बड़ी जगह खाली हो गयी थी, और कितना कुछ ऐसा था जो जमींदार साहब के होने मात्र से चलता रहता था, लेकिन जिसकी ज़िम्मेदारी अब उन्हें ही उठानी थी. उनका मन एकदम से खराब हो गया, चेहरा उतर गया. उन्होंने सईस को कहा कि घोड़ी वापस ले जाये.

अरविंद को यह अजीब लगा कि इक्के की छतरी के चारों डंडों को घेर कर चादर बाँधी गयी, उसके अंदर उसकी मां बैठीं. पहले भी ऐसा होता रहा होगा, पर उसकी अरविंद को कोई याद नहीं थी.

(अधूरी)

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