ओमप्रकाश दीपक का लेखन कल्पना का हिन्दी लेखन जगत

स्मरण : ओम प्रकाश दीपक

अशोक सेकसरिया, 1975

लिख कर किसी व्यक्ति के बारे में बताना बहुत मुश्किल होता है. इस मुश्किल में हम आम जिन्दगी की कुछ कसौटियों पर उस व्यक्ति को कस कर आसान बनाने की चेष्ठा करते हैं. दीपकजी पर लिखते वक्त यह बात बार बार महसूस होती है.

आप जिस व्यक्ति को जानने का दावा करते हैं उसे आप अपने मुआफिक ही जानते हैं. इसलिए उसे एक सार्वजनिक बात बनाने से आप को हिचक होती है और कहीं यह भी महसूस होता है कि सार्वजनिक रुप दे कर कहीं आप उस व्यक्ति का अपमान तो नहीं कर रहे. यहीं उपन्यास, कहानी और आत्मकथा आप की मदद करते हैं. वे अत्यंत निजि वस्तु होने के कारण आप को इस तरह की हिचक और शंका से मुक्त रखते हैं क्यों कि बात छपने के बाद सार्वजनिक नहीं होती, वह लेखक की अपनी संवेदनशीलता, कल्पना और ईमानदारी से ताल्लुक रखती है, जिसके लिए वह सिर्फ अपने को जिम्मेदार महसूस करता है. उसकी यह ज़िम्मेदारी सार्वजनिक नहीं होती. यही लेखन और पत्रकारिता का सबसे बड़ा फर्क है. बेहतर तो यह होता कि इन पंक्तियों का लेखक दीपकजी के बारे में न लिखता लेकिन न लिखना भी एक अत्यंत स्वार्थपर बात होती जिसकी कचोट उसे होती रहती.

एक अत्यंत संवेदनशील और असमान्य किस्म के व्यक्ति को स्थूल, साधारण और सार्वजनिक रुप में पाठकों को बताने की यहां चेष्ठा की जा रही है.

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दीपकजी से मुझे चिढ़ थी. मेरे मित्र कमलेश, हिंदी के प्रसिद्ध कवि और साप्ताहिक "प्रतिपक्ष" के सम्पादक, "जन" में उनके सहयोगी थे. मैंने अगिनत बार उनसे कहा होगा कि ओमप्रकाश दीपक को तुम कैसे बरदाश्त करते हो? कमलेश जी बात को हंस कर टाल देते थे, उनके इस टालने पर बाद में मुझे अक्सर गुस्सा भी आया था कि अगर वह मेरी बात का प्रतिवाद करते तो मैं अपनी धारणा को कहीं बदलता जरुर क्योंकि कमलेशजी को चीजों को जानने समझने वाला व्यक्ति मानता हूँ.

मुझे दीपकजी से चिढ़ क्यों थी? मुझे लगता था कि यह आदमी चालाक है और अपने को बहुत ज्यादा समझता है. उन दिनों दीपकजी के साहित्यकार पक्ष से ही हमारा ज्यादा ताल्लुक था और उनके कुछ लेख ऐसे निकले थे जिनसे मुझे यह लगा कि वह चालाकी से अपने को स्थापित करने के लिए कुछ ऐसी कसौटियां रख रहे हैं जो हिंदी के तमाम लेखकों को एकदम घटिया साबित कर रहीं हैं और यह कसौटिया राजनीतिक पूर्वाग्रह से ग्रस्त हैं. एकदम स्थूल रुप में कहना हो तो यह कहना होगा कि मैं यह मानता था कि दीपकजी बुद्धिजीवी होने के नाते अपने राजनीतिक ज्ञान का फायदा उठा कर "भोले भाले" लेखकों पर धौंस जमा रहे हैं. दीपकजी राजनीति में लम्बे अरसे से हैं यह मुझे पता नहीं था. मैं उन्हें एक चालाक बुद्धिजीवी ही समझता था, बाद में "जन" में काम करते हुए पता लगा कि वह 1945 से ही कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी में थे और पंजाब में काम करते हुए पुलिस की निगाह से बचाने के खातिर पार्टी ने उनका नाम "दीपक" रखा था. मैंने दीपकजी को विश्वविद्यालय में पढ़ा, बुद्धिजीवी भी समझता था और शायद यह भी मानता था कि जिसने विश्विद्यालयी डिगरियां हासिल नहीं की हैं, वह बुद्धिजीवी हो ही नहीं सकता. मुझे जानकर बहुत अचरज हुआ कि उन्होंने 1942 और 43 में कालेज प्रवेश करने के बाद ही 1942 के आंदोलन के सिलसिले में पढ़ाई छोड़ दी थी. इस जानकारी के परिप्रेक्ष्य में सम्मान और आदर के ज्वार में अपनी पहले की धारणाओं के प्रति पश्चाताप के बजाय अपने पर दया ज्यादा आयी कि इस आदमी को तुमने अज्ञान के कारण गलत समझा था और इस तरह का अज्ञान और उससे उत्पन्न होने वाली धारणाएं कम से कम पाप नहीं कही जा सकती.

1967 के अंत में मेरी कुछ ऐसी व्यक्तिगत स्थिति थी कि मैं हर हालत में दिल्ली रहना चाहता था और कुछ भी करने को तैयार था. ऐसे में दिसंबर में कमलेश जी ने कहा कि दीपकजी को हृदय का दौरा पड़ा है. लोहिया की मृत्यु के कुछ दिन बाद ही उन्हें यह दौरा पड़ा था. वह जन के लिए एक आदमी चाहते हैं, तुम कहो तो मैं उनसे बात करुँ. मैंने यह सोच कर कि "मैं सब कुछ करने के लिए तैयार हूँ", हामी भर दी. दिल्ली में मैं अपने एक दोस्त के यहाँ रह रहा था. उसके घर से थोड़ी दूर पर ही दीपक जी रहते थे. मुझे जैसा याद आता है कि दूसरे या तीसरे दिन, वह अस्पताल से कुछ दिन पहले ही छूटे थे, वह मेरे पास आये और कहा कि कमलेशजी और प्रयाग (प्रयाग शुक्ल, हिंदी के सुप्रसिद्ध कवि और दिनमान के उपसम्पादक) ने आपकी बाबत मुझे कहा, आप राजी हैं? यह दीपकजी से मेरी दूसरी या तीसरी मुलाकात थी. मुझे काफी अचरज हुआ कि जिस व्यक्ति को मैं अत्यंत दम्भी मानता आया हूँ, वह इतनी सहजता से मुझसे मिल रहा है, जबकि गरज मेरी ज्यादा है.

मैं जन में काम करने लगा. एक सप्ताह के भीतर मैंने इतना समझ लिया कि यह आदमी वैसा नहीं जिनसे मैं अब तक मिलता आया हूँ. हम हिंदुस्तानी आपस में तमाम ईष्या, जलन और वैमनस्य के बावजूद एक प्रकार की छल भरी समाजिकता बनाये रखते हैं. हमारे आग्रह कभी भी ठोस रुप नहीं ग्रहण करते. कोई अपने आग्रह को ठोस रुप देना चाहता है तो हमारी तुरंत अनबन हो जाती है. हमारे समाज में वही व्यक्ति सबसे ज्यादा आदर पाता है जो हर क्षण "लचीला" बन जाता है और दीपकजी इस तरह के "लचीले" आदमी नहीं थे. एक सप्ताह में इतना समझ पाने के बाद तीन साल "जन" के काम में और बाद में उन्हें समझने में मुझे कोई दिक्कत नहीं आयी. दैनन्दिन के काम में उन्होंने मुझे बीसियों बार डाँटा होगा, जिसका अप्रत्यक्ष डर मन में जरुर रहा होगा, लेकिन एक बार भी मन में कटुता उत्पन्न नहीं हुई क्योंकि ऐसी असंख्य घटनाएं घटती रहीं जिनसे मन में उनके प्रति आदर बढ़ता ही गया और मैंने यह जाना कि इस व्यक्ति को मुझसे सचमुच स्नेह है और जब आप यह जानते हैं तो डाँट कभी कटुता उत्पन्न नहीं करती. व्यक्तिगत स्नेह की बात करना सार्वजनिक रुप से उचित नहीं लेकिन आदर की बात शायद की जा सकती है.

हम किसी व्यक्ति का सचमुच में आदर करते हैं तब उसके कारण बहुत छोटे होते हैं. हम अपने आसपास तमाम लोगों को देखते हैं, जो सामने वाले की प्रतिष्ठा को देख कर बात करते हैं. हममें से करोड़ों लोगों का अनुभव है कि चार आदमी मिल कर बात करते हैं तो सामान्य आचार व्यवहार के नियमों के अनुसार वे एक दूसरे से उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा को ध्यान में रखते हुए बात करते हैं. यह सामाजिक प्रतिष्ठा ही बातचीत का मूल्य होती है. दीपकजी ने कभी इस मूल्य को नहीं स्वीकारा. प्रसिद्ध से प्रसिद्ध आदमियों के बीच दीपकजी के साथ बैठने का मुझे सौभाग्य प्राप्त हुआ और कभी किसी संयोग से मैंने अपने को सही ढ़ंग से स्पष्ट रुप से कोई बात कहते पाया तो दीपकजी ने हमेशा सामने बैठे प्रसिद्ध आदमी की बात से मेरी बात को ज्यादा वजन दिया. यह प्रतीति एक व्यक्तिगत सुख के साथ उनके प्रति मन में वफादारी की उत्कट अभिलाषा जागृत करती थी जो बाद में आदर का रुप ग्रहण कर शांत हो जाती थी.

"जन" में संसोपा के नेतृत्व की आलोचना भी होती थी और संसोपा के नेता इंदिरा गाँधी की आलोचना करने के लिए तो अपने को छुट्टा समझते थे पर उनकी कोई आलोचना करे यह उन्हें बरदाश्त नहीं था. संसोपा के बड़े नेताओं की अखबारी छवि ही मेरे दिमाग में थी और मैं दो तीन को "बड़ा आदमी" मानता था. मैं यह सोच नहीं सकता था कि जो नेता बड़ा उग्र और क्रांतिकारी के रुप में विख्यात हैं, वह हम सामान्य कोटि के लोगों की तरह ही कायर होगा. एक ऐसे ही बड़े नेता ने सड़क पर मिलने पर मुझे धमकाना शुरु किया कि "जन" में यह सब क्या छपता है. मैंने चुपचाप उनकी बात सुन ली, कोई जवाब नहीं दिया. मैंने दीपकजी को बताया कि फलां नेता से मुलाकात हुई तो उसने यह सब कहा.

दीपकजी ने कहा, "कल ही मेरी इस नेता से मुलाकात हुई थी और उसने मुझे इस बारे में कुछ भी नहीं कहा. मैं अभी जाता हूँ उसके पास. उन्होंने आपको किस आधार पर धमकाया, "जन" का सम्पादक तो मैं हूँ, वह अगर धमकाना चाहें तो मुझे धमकायें." गुस्से से लाल दीपकजी तुरंत चल दिये. एक घण्टा बाद लौटे तो मैंने उन्हें पूछा कि क्या हुआ? वह बोले "आप इन लोगों को जानते नहीं. उनंहोंने मुझे कहा कि आपने जो बताया है, वैसा कुछ नहीं कहा. इसके बाद मैं उनसे यही कह सकता था कि आप झूठ बोल रहे हैं. गाली गलोज होता. मैं चला आया."

इस घटना के एक डेढ़ महीने बाद दीपकजी की संसोपा के उतने ही एक और बड़े नेता से बातचीत हुई कि वह "जन" में लेख लिखेंगे और उसके माध्यम से "जन" में हुई आलोचना का जवाब भी दे देंगे. दीपकजी ने मुझसे कहा कि वह लेख बोल कर लिखवायेंगे इसलिए मैं सुबह उनके यहाँ चला जाऊँ. मैं पहुँचा तो उन्होने भी ऊपर वाले नेता की तरह डांटना फटकारना शुरु कर दिया, कहाः "जन में सब गलीज छपता है और आप लोग पार्टी को डुबोने के लिए तैयार हैं." चमचों से घिरे बैठे नेता ने एकाएक तैश में आ कर कहा "आपको मेरे लेख के साथ पृष्ठभूमि के रुप में मेरे तमाम वक्तव्य भी छापने होंगे." मैंने उन्हें अत्यंत विनम्रता पूर्वक कहा, "आप का एक भी व्यक्तत्व हम नहीं छापेंगे. आपसे जिस लेख की बात हुई है वह अगर आप लिखाना चाहें तो लिखा दें नहीं तो मैं जाऊँ." इस वाक्य का नेता पर गजब का असर हुआ. वह एकदम चुप हो गया और उसने कहा, "ठीक है मैं लेख लिखा देता हूँ." एक "बड़े नेता" को "ठीक रास्ते पर लाने" की अनुभूति सचमुच ही बहुत हर्षदायक थी. दूसरे दिन मैंने हर्षातिरेक में दीपकजी को यह बात बतायी तो उन्होंने कहाः "आप ठीक काम करना सीख रहे हैं." मैंने उस वक्त नहीं कहा पर मैं जानता था कि पहले नेता वाला वाकया न हुआ होता तो मैं काफी देर तक दूसरे नेता की डाँट खाता होता. एक सामान्य आदमी को दीपकजी ने अपना विश्वास दे कर सहज और स्वाभाविक आचरण करने की हिम्मत प्रदान की.

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6 अप्रैल 1970 को संसोपा ने "जनवाणी दिवस" पर दिल्ली में प्रदर्शन किया. किसी राजनीतिक प्रदर्शन में भाग लेने का मेरा पहला मौका था. पुलिस ने प्रदर्शन पर पटेल चौक के पास आंसू गैस छोड़ी और लाठी चार्ज किया. लाठी चार्ज में संसोपा के कई नेता भी घायल हुए. दीपकजी प्रदर्शन में थे पर कहां थे, भगदड़ में हमें यह पता नहीं लग पाया. शाम को हम लोग घायल लोगों को देखने निकले तो एक घिनोनी तस्वीर भी सामने आयी. जहां जाते लगभग वही नेता किस्म के लोग यह जताने की कोशिश करते कि उन्हें बहुत चोट लगी है. एक नेता ने हमें अपनी पीठ दिखायी जिसपर लाठी के दो तीन हल्के निशान थे.

दूसरे दिन "जन" कार्यालय में सुबह दीपकजी पहुँचे. रमा जी (रमा मित्र, मैनकाइंड की सम्पादक) घायल लोगों को मलहम लगा और बांट रहीं थीं. दीपकजी ने कहा, "रमा मैं कल रात सोते समय एक बार भी करवट बदल नहीं सका. तुम अपनी मलहम एक कागज पर मुझे दे देना, मैं घर ले जाऊँगा." हमें पता भी नहीं था कि दीपकजी को लाठी लगी है. रमाजी ने कहा, "तुम कुर्ता खोलो मैं यहीं लगा देती हूँ." दीपकजी ने कहा, "रहने दो, मैं घर ही ले जाऊँगा." मेरे मन में पापपूर्ण विचार आया कि दीपकजी को सामान्य सी चोट आयी है और इसीलिए वह कह रहे हैं कि घर ले जाऊँगा. रमाजी ने जिद पकड़ ली कि वह कुर्ता खोंलें. जैसे ही दीपकजी ने कुर्ता खोला मैं हतवाक् रह गया. सारी पीठ पर लाठियों के इतने वार थे कि सारी पीठ काटा काटी और गुणा के चिन्ह के भयंकर डिजाइन से भरी हुई थी. चमड़ी एकदम लाल थी. हम जितने भी लोग वहां थे यह देख कर सन्न से रह गये. रमाजी ने कहा, "लगता है कि तुमने तो बैठ कर मार खायी है." हुआ यह था कि आंसू गैस छूटने पर पटेल चौक में भगदड़ मची थी लेकिन दीपकजी जहां खड़े थे वहीं बैठ गये और पुलिस ने उन्हें एक दो लाठी मारने के बाद चले जाने को कहा लेकिन वह बैठे रहे. बैठे रहने पर पुलिस के सिपाही ने उनकी पीठ को छलनी कर दिया. अपने पापपूर्ण खयाल पर मुझे इतनी ग्लानी हुई कि मैंने वहीं दीपकजी को कहा कि मैंने सोचा था कि आपको बहुत समान्य सी चोट आयी है. यह यह ऐसी हल्की सी बात थी जिस पर दीपकजी अपने स्वभाव की तरह आगबबूला हो सकते थे. उनके साथ काम करने वाला कोई व्यक्ति उनकी व्यक्तिगत ईमानदारी पर अविश्वास करे तो सहज स्वीकार कर लेना उनके लिऐ असम्भव था.

उन्होंने व्यथित स्वर में इतना ही कहा "आपको ऐसा नहीं सोचना चाहिये था." मुझे अपने पर इतनी ग्लानी हुई कि यह सफाई देने की इच्छा ही नहीं हुई कि "दीपकजी माफ करें. कल रात कुछ लोगों की अदृष्य चोटें देख कर मेरे मन में यह बात आयी थी."

इस लेख में काफी पहले मैंने "जन" में काम करने से पहले दीपकजी से अपनी चिढ़ के बारे में लिखा है. चिढ़ के जो कारण मैंने बताये उनके अलावा एक बड़ा कारण शायद दीपकजी की शैली का था. उनकी शैली सामाजिक नहीं थी.

उनके अत्याधिक महत्वाकांक्षी होने की बात मैंने किस आधार पर सोची, यह मैं आज भी नहीं जान पाया हूँ. उनके साथ काम करने के एक सप्ताह बाद ही मैं जान गया कि समान्य व्यक्ति जितनी भी अपने बारे में महत्वाकांक्षा उनमे नहीं है. वह चीजों को राजनीतिक ताकत के संदर्भ में सोचते हैं पर उसमें व्यक्तिगत आकांक्षा कहीं नहीं है. शायद हमारे समाज की यह "विषेशता" है कि कोई भी आदमी जब अपने आग्रहों को जोर देकर रखता है और उन पर किसी तरह का समझौता करने को प्रस्तुत नहीं होता तब उन आग्रहों की जांच से बचने के लिए हम उसे महत्वाकांक्षी मान अपनी कमजोरी छुपाते हैं. दीपकजी के साथ काम करने में अगिनत मौके आये हैं जब मैंने पाया कि उन्होंने उन चीजों को सहज भाव से ठुकराया, जिनके लिए महत्वाकंक्षी व्यक्ति ललचाता रहता है.ऐसे उदाहरण देना उनका अपमान करना ही होगा. उनके साहित्यिक लेखों के बारे में अपनी धारणा के बारे में सोचने पर आज यही लगता है कि कहीं वह धारणा मेरी अपनी निजी महत्वाकांक्षा के ही कारण तो न थी.

उनकी शैली के बारे में मैंने कई बार सोचा है तो यह भी पाया है कि हमारे देश में समाजिकता की शैली का जो प्रचलन है, वह आदमी को निरंतर स्खलित करती रहती है . हमारे एक मित्र ने साम्प्रदायिकता पर एक विचार गोष्ठी का आयोजन किया था. इस गोष्ठी के आयोजन के बारे में उन्होंने दीपकजी से बातचीत की और दीपकजी ने उसमें पूरी मदद की. मैं और दीपकजी पहुँचे तो पता चला कि गोष्ठी में प्रधानमंत्री आ रहीं हैं. हाल के पास सेक्योरिटी के लोग खड़े थे. दीपकजी ने कहा, "अशोकजी मैं तो अब जाता हूँ. मुझे कहा गया था कि गोष्ठी में कोई सरकारी नेता नहीं आयेगा." वह चल दिये. मैं असमंजस में पड़ गया पर हमारे मित्र नाराज होंगे, यह सोच गोष्ठी में चला गया. हम हिंदुस्तानी निरंतर यह करते रहते हैं और अपने को भ्रष्ट और स्खलित करते रहते हैं और मजे की बात यह है कि जो ऐसा नहीं करता उसे ऊपर से असामाजिक करार देते हैं.

जन में डेढ़ दो वर्ष काम करने के बाद मुझे कहीं यह भी लगने लगा कि वह "भोले आदमी" हैं. यह शायद इसलिए भी कि मैंने उन्हें चालाक माना था. उनसे कई लोग योजनाएँ बनवा लेते, उनके दिमाग का फायदा उठा लेते और करते वही घिनौनी स्वार्थपरक बातें. मेरे देखते संसोपा के कितने ही प्रस्ताव व घोषणा पत्र उन्होंने लिखे. उत्साह में वह कहते कि बातें अगर रखी जाती हैं तो उनका नतीजा भी निकलता है. संसोपा के नेताओं के बारे में मेरे मन में इतनी खराब धारणा बन गयी थी कि मैं यहाँ तक सोचता था कि वे मेहनत से बचने और सोच पाने की अपनी असमर्थता के कारण दीपकजी का फायदा उठा रहे हैं. और यह धारणा कई बार सही निकली. दीपकजी का सारा प्रस्ताव जस का तस रख कर उसका ओपेरेटिव, अमल में आने वाला, हिस्सा निकाल दिया जाता. ऐसे में दीपकजी एक दो दिन विचलित रहते. लेकिन जब तक वह संसोपा में रहे तब तक वह कोशिश करते रहे कि किसी भी तरह सिद्धांत और नीतियों की बातें रखी जाती रहें.

इस लेख का कोई छोर मुझे नहीं दिखायी देता. उनका उपन्यासकार व कहानी लेखक का रूप, सम्पादक का रूप, प्रखर बुद्धिजीवी और चितंक का रूप, सक्रिय राजनीतिक कर्मी का रूप, कलाप्रेमी का रूप और उनका घरेलू रूप, सब एक लेख में झलक नहीं सकता पर लिखते हुए सबको झलकाने का मोह होता है क्योंकि उनके परिचितों में भी बहुतों को इन रूपों का पता नहीं. एक उपन्यासकार और कहानी लेखक के रुप में उन्हें राजनीति कभी बाधक नहीं लगी. संक्षेप में यह कह सकते हैं कि वह मानते थे कि सत्य को उद्घाटित करने में लेखक की राजनीतिक मान्यताएँ यदि उस पर हावी होती हैं तो उसका लेखन सृजनात्मक नहीं हो सकता, लेखन नितांत एक व्यक्तिगत कर्म है लेकिन असामाजिक भी नहीं. एक सक्रिय राजनीतिक कर्मी के रुप में उनकी साहित्यक मान्यताएँ चौंकातीं थी क्योंकि मैं यही मानता था कि उनके जैसा व्यक्ति "प्रतिबद्ध" लेखक होना चाहिये पर सृजनात्मक लेखन में उनकी प्रतिबद्धता अपने आत्मीय संसार और संस्कारों के प्रति थी और इसमें किसी चीज की मनाही नहीं थी. राजनीति उनके व्यक्तित्व का अंग थी सो वह उनके सृजनात्मक लेखन में आये बिना नहीं रह सकती थी पर तब वह राजनीति के रुप में नहीं एक आत्मीय सत्य के रुप में ही आ सकती थी, अपने आग्रहों से मुक्त हो कर.

सम्पादक के रुप में उन्होंने मुझे जो हिदायत दी थी उन्हें यहाँ लिख देता हूँ, "कभी गिमिक यानि अखबारी चालबाजी के चक्कर में मत पड़ियेगा. हम लोगों को धोखा देने के लिए नहीं निकले हैं. किसी भी रपट या दस्तावेज को अपने अनुकूल बनाने की कोशिश न कीजियेगा." मेंने चेक प्रधान मंत्री दुबचेक के वक्तव्यों का "जन" के लिए एक दस्तावेज बनाया था. उत्साह में आ कर और रूस के प्रति घृणा के भाव के कारण इसे मैंने एकदम एकतरफा बना दिया था. दीपकजी ने दस्तावेज पढ़ा तो गुस्से में वह लाला हो गये, "आप ने यह क्या किया, दुबचेक के संदर्भ काट दिये." दस्तावेज उन्होंने दुबारा तैयार किया.

"जन" में सम्पादक की प्रशंसा भूल से भी न छपे, इसकी सख्त ताईद थी. हिंदी पत्रकारिता की यह आधुनिक परम्परा है कि सम्पादक लोग पत्रों को अपने व्यक्तिगत प्रचार का साधन मानते हैं. अपने बारे में समाचार और प्रशंसा छापने में उन्हें तनिक भी दुविधा नहीं होती. "जन" में "कुछ जिन्दगियाँ बेमतलब" की समीक्षा भी नहीं छपी. दीपकजी दम्भी व्यक्ति माने जाते थे पर इन बातों को तो उनके साथ काम करने वाला ही व्यक्ति जान सकता था.

अब लेख का अंत करते हैं. बातें छूट रही हैं, उन्हें पकड़ना सम्भव नहीं. यह लिखते हुए दीपकजी का चेहरा, उनके तीखे नाक नक्श, उनका चेहरा ऐसा था कि प्रतिनिधि हिदुस्तानी चेहरा कहा जा सकता है, उनकी संवेदनशीलता याद आती है तो कमला जी, दीपकजी की पत्नी, और उनके बेटे बेटियों की याद मन को कातर बना देती है. दीपकजी के घर जाने का मुझे बीसियों बार मौका मिला. उनके घर जाना मुझे अच्छा लगता था. यह ऐसा घर था जहाँ हर आदमी स्वतंत्र था, कहीं कोई दखलन्दाजी नहीं पर अपार प्रेम था. कमलाजी का अपना व्यक्तित्व था और उसका सबसे ज्यादा भान दीपकजी को था. कभी कभी दीपकजी कमलाजी के बारे में प्रेम में विभोर हो बताते तो हमेशा यह कहना नहीं भूलते कि "कमला की राय अपनी होती है और वह किसी को नहीं बख्शती."

इस लेख में बातें अव्यवस्थित ढ़ंग से आयीं हैं. यह व्यक्तिगत श्रद्धांजलि है और इसे अपने दुख की बात कह कर ही समाप्त करना चाहिये. हममें से अधिकांश आदमी यह जानना चाहते हें कि वे जो कुछ कर रहे हैं या सोच रहे हें, वह ठीक है या नहीं. वह इस पृथ्वी पर ही अपने बारे में निर्णय सुनना चाहते हैं. हर आदमी ऐसे निर्णय के लिए कुछ व्यक्ति चुनता है. मैंने दीपकजी को चुना था और उनसे निर्णय पाने की आशा जीवन की अनिश्चतता और घबराहट को बहुत हद तक दूर करती थी.

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