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स्मरण : ओम प्रकाश दीपक

एक सच्चा क्रांतिकारी व्यक्ति, जार्ज फर्नानडिस, कलकत्ता, 26 मार्च 1975

ओम प्रकाश दीपक नहीं रहे. उनकी मृत्यु से जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में चल रहे सम्पूर्ण क्रान्ति के आंदोलन को जो नुकसान हुआ है, उसे पूरा नहीं किया जा सकता. बहुत कम लोग दीपक जी के बारे में यह जानते हैं कि बिहार आंदोलन में जयप्रकाश नारायण के साथ जी जान से काम करने वाले प्रतिबद्ध व्यक्तियों में से वह एक थे.

मैं पिछले बीस सालों से उन्हें जानता था. दीपक और मेरे आदर्श एक थे. यह बात अलग है कि राजनीति की आपाधापी में हमने अक्सर एक दूसरे को अलग मंचों से एक ही आदर्श के बारे में बहस करते हुए पाया. वह एक अत्यंत संवेदनशील व्यक्ति थे और अपने विचारों के पक्के थे. परिवर्तन के लिए उनकी ललक इतनी ज्यादा थी कि अत्यंत कठिन व्यक्तिगत परिस्थितियों में भी वह तनिक नहीं डिगे.

बिहार के आंदोलन में एक दिन हम अजीब परिस्थितियों में साथ थे. 4 नवंबर 1974 का वह दिन था.

जून 1974 के बाद मुझे बिहार से दो बार निष्कासित किया गया. मैंने निष्कासन आदेश को न मानना तय किया और कुछ दिन पटना में रहने की सोची. इसके लिए जरुरी था कि अधिकारियों को मेरी उपस्थिति का पता न लगे. मैंने ४ नवम्बर को बिहार में प्रवेश करने का निश्चय किया. मैं दिल्ली से विमान द्वारा वाराणसी आया. हवाई अड्डे से मैं एयर लाईनस् के दफ्तर आया और वहाँ से अपने मेजबान के यहां जाने के लिए टैक्सी ठीक कर रहा था कि मेरी नजर एक व्यक्ति पर पड़ी. जिसका चेहरा मेरा पहचाना हुआ था पर उसके कपड़ों और तौर तरीकों का उसके चेहरे से मैं मेल नहीं बिठा पा रहा था. वह व्यक्ति दीपक थे. उन्होने ऐसे कपड़े पहन रखे थे जिससे उन्हें पहचाना न जा सके. हम साथ ही टैक्सी में चले.

4 नवम्बर को पटना में एतिहासिक प्रदर्शन हुआ. राज्य और क्रेन्दीय सरकारों ने मिल कर बिहार खास कर पटना जाने वाली सभी ट्रेनों को रोक दिया था. लोग पटना न पहुँच पायें इसके लिए पटना जाने वाली 52 ट्रेनें रद्द कर दी गयीं.

लेकिन मैं और दीपक 4 नवम्बर को शाम तक किसी भी तरह पटना पहूँचने पर तुले हुए थे.

टैक्सी से अपने मेजबान के घर पहुँचते ही हमें पता चल गया कि हमारा पीछा किया जा रहा है. अब हमने सोचना शुरु किया कि पुलिस की आँखों में धूल झोंक कर किस किस तरीके से पटना पहुँचा जा सकता है. हम जानते थे कि हमें पटना पहुँचने न देने के लिए पुलिस हर तरह की शैतानी करेगी. हमारी किस्मत अच्छी थी कि वाराणसी से एक ट्रेन पटना की तरफ जाने वाली थी. मैंने अपनी योजना मुताबिक भेष बदला और बहुत लुका चोरी के बाद हम किसी तरह काशी टेसन पहुँचे. काशी टेसन पर ट्रेन एक दो मिनट रुकने वाली थी. सिगनेल मैन के केबिन के पास से हम प्लाटफार्म पर दाखिल हुए कि ट्रेन आकर रुकी. सारी बोगी में हम दो ही यात्री थे लेकिन पुलिस द्वारा पहचानने से बचने के लिए हम अलग अलग डिब्बों में बैठे. थोड़ी देर बाद मेरे डिब्बे में सादे कपड़ों में एक पुलिस अफसर आ कर बैठ गया. इसका काम हमें पटना पहुँचने से रोकना था.

इधर एक डेढ़ साल में दीपक के व्यक्तित्व में गजब का परिवर्तन हुआ था, खासकर जयप्रकाश के साथ और बिहार आंदोलन से एकाकार हो जाने के बाद. लोहिया के साथ काम करते हुए उनमें जो आग लगातार धधकती थी, वह आग उतनी ही तेज थी लेकिन उनका व्यक्तित्व अधिक शांत हो गया था. लगातार आदर्शों की लड़ाई में हारने और निकट के मित्रों व साथियों से निराश होने पर आदमी कुछ कटु हो जाता है. मुझे दीपक में ऐसी कटुता आती दिखायी दी थी. जयप्रकाश के समर में कूदने के बाद यह कटुता काफूर हो गयी थी. वह शायद फिर से आशा करने लगे थे, एक नयी आशा ने उन्हें प्लावित कर डाला था. वह शायद यह महसूस कर रहे थे कि परिवर्तन और यथास्थिति के बीच लड़ाई छिड़ गयी है और यह जम कर चलेगी. ऐसी लड़ाई जिसमें उन्होंने अपना सब कुछ झोंक देना है.

मैं बहुत सारे आदमियों से मिला हूँ. जिन अत्यंत संवेदनशील व्यक्तियों से मैं मिला हूँ उनमें दीपक एक थे. एक सच्चे क्राँतिकारी की तरह वह बोलते, लिखते और काम करते थे.

यह नियती की क्रूरता ही कही जायेगी कि जीवन पर्यन्त देश के लिए जिन आशाओं और सपनों को वह संजोते रहे उनके पूरे होने की जब उम्मीद बंधने लगी थी तभी वह हमारे बीच से उठ गये. इस उम्मीद को जगाने में उन्होंने अपनी भूमिका अदा की. खूब अदा की.

मैं आशा करता हूँ कि उनकी पत्नी कमला और उनके बच्चे, बिछोह के अपार दुःख में इस बात से थोड़ी सांत्वना जरुर प्राप्त करेंगे कि दीपक ने एक नया भारत बनाने के क्रांतिकारी संघर्ष को तेज किया और उसके वह अंग थे.

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