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स्मरण : ओम प्रकाश दीपक

सच्चे समाजवाद की समाजवादी भित्ति, सच्चिदानन्द वात्स्यायन, दिनमान 6 अप्रैल 1975

दूब पर मंडलाकार चुपचाप बैठे हुए थोड़े से लोग. दीपक जी की मृत्यु पर शोक और उन के समर्पित कर्मठ व्यक्त्तित्व के प्रति सम्मान प्रकट करने के लिए जुटी छोटी सी सभा में, मुझे लगा गहरी प्रतीकत्मकता है. दूब की सी जीवंत स्वच्छता, निराडम्बर गहराई, एक विनय भरी, अनाक्रमक किंतु दुर्दम्य दृढ़ता, जो जड़ों के जमीन में गहरी जमी होने से आती है. दीपक जी का व्यक्त्तित्व एकाएक छा जाने वाला नहीं था पर वैसा था जिसका न होना तभी और इसीलिए हमें अधिक गहरा सा लगता है कि जब वह था तब उसे इतनी सहजता से ग्रहण कर लिया जा सकता था मानों अनदेखा ही कर दिया गया हो.

दीपक जी को मैं अपने बंधु जनों में गिनता था. यह कह कर साथ यह भी कहूँ कि उनके निजी जीवन के बारे में मेरी जानकारी बहुत कम थी, तो बात बेमेल लग सकती है. पर बंधुजन दो तरह के होते हैं. एक जिनसे आत्मीयता का आधार रागात्मक अथवा भावनामूलक होता है, ऐसे बंधुजन के साधारण जीवन में ही हम हिस्सा बँटाते और बँटाना चाहते हैं, अपने साधारण जीवन में उन्हें खींच ला कर उनका हिस्सा उन्हें देना चाहते हैं. दूसरी तरह के बंधु वे होते हैं जिनसे आत्मीयता एक सूक्ष्मतर आधार पर होती है, उसे मानसिक या वैचारिक कह लीजिये. दीपकजी ऐसे ही मानससखा थे. ऐसे साहचर्य में एक खास तरह की निःसंगता, लगभग निर्वयक्तिकता होती है. पुराने क्राँतीकारी और राजनैतिक कर्मी पहचानेगे कि व्यक्त्तिगत संबंधों की यह सतही तटस्थता कैसे एक गहरे स्तर पर एकात्मकता के साथ चलती है.

पहली कोटि का बंधु छिन जाने पर लगता है कि मेरा एक अंग टूट गया हो, मैं पंगु हो गया हूँ, या छोटा हो गया हूँ. दूसरी कोटि का बंधु छिन जाने पर लगता है कि मेरी दुनिया का एक पूरा देश टूट कर अलग हो गया है, मेरी दुनिया छोटी हो गयी है.

दीपक जी के न रहने से मेरी दुनिया कुछ सिकुड़ गयी है.

उनसे पहला परिचय कब हुआ, ठीक याद नहीं आता. पर इतना याद है कि उसकी पृष्ठभूमि में कहीं आचार्य नरेंद्रदेव थे. "संघर्ष" साप्ताहिक के जमाने में बीच बीच में उनसे मिलना हुआ. फिर डा. लोहिया के यहाँ भी जब तब मिलना होता और स्वयं दिनमान के संदर्भ में तो प्रायः ही हम लोग मिलते और उनके प्रकाशित या आयोजित लेखों की चर्चा करते. "दिनमान" से जब तक मेरा संपादकीय संबंध रहा तब तक दीपकजी उसमें नियमित रुप से लिखते रहे. उनके लिखने में एक विषेश "अनियमित नियमतता" रहती अथवा "नियमित अनियमितता" रहती थी जिसे ले कर मैं कभी कभी छेड़ता भी था. मेरे विनोद भरे आरोप को वह भी उसी तरह सहज भाव से स्वीकार कर लेते जिससे मैं उन की अपरिहार्य अनियमितता को स्वीकार कर लेता था. इस का कारण था और हमारे बँधे भाव को और भी दृढ़तर करने में उसका योग था. वह जानते थे कि मुझे हल्का या गैरजिम्मेदार ढ़ंग से किया गया काम पसंद नहीं है, भले ही वह कितना भी ब्रिलियंट हो. मैं जानता था कि वह अपने लेख या ब्यौरे या रपट में कोई ऐसी बात नहीं नहीं लिखेंगे जिसके अभिप्रायों और व्यंजनाओं की हर दिशा की पूरी पड़ताल करके स्थिर न कर चुके हों कि ठीक वही उन्हें कहना है, कोई तर्क या योजना नहीं रखेंगे जिसके हर पहलू और अविहित और निहित अर्थ की नापजोख उन्होंने न कर ली हो.

विषेशतया किसी भी बात के समाज नैतिक, अथवा मूल्यगत आधार के बारे में उनमें गहरी और सदा सजग चेतना थी. मेरी समझ में वह सजगता सच्चे समाजवाद का मानववादी भित्ति हैं, लेकिन वह भी जानता हूँ निरे राजनीतिक कर्मी अथवा नेता के लिए यह एक बंधन भी हो सकती है. दीपकजी समाजवादी राजनीतिक आंदोलन के "नेता" नहीं हो सकते थे, न थे, मगर कोई भी समाजवादी राजनैतिक आंदोलन और नेता, ऐसे सहकर्मी को पा कर धन्य भी हो सकता है. मैंने कहा कि दीपक जी राजनैतिक नेता नहीं थे, न हो सकते थे, यह भी कहूँ उन जैसे व्यक्त्तियों के अवदान के बिना कोई समाजवादी आंदोलन सच्चे अर्थ में सफल नहीं हो सकता, क्योंकि जो नैतिक मूल्य बोध उनके हर कर्म और उक्त्ति को अनुप्राणित किये रहता था उसके बिना लाया गया समाजवाद भी संदिग्ध ही रहेगा, क्योंकि सच्चे सामाजिक न्याय की गारंटी इसमें नहीं होगी. "आम" या "साधारण" आदमी दीपक जी नहीं थे. बहुत ही दुर्लभ और विशिष्ट था उनका व्यक्त्तित्व, पर आदमियत के ही सार तत्त्वों का साधारणीकृत सार्वभौम साँचा तैयार किया जा सकता हो तो दीपक जी उसे ढ़ाँचे में ढ़ले हुऐ व्यक्त्ति थे.

दुर्लभ, विशिष्ट, सार्वभौम, जैसे लोगों के उठ जाने से दुनिया छोटी होती है. दीपक जी की स्मृति को विनत श्रद्धा शोकांजलि, उनके परिवार को हार्दिक संवेदना के साथ अर्पित करता हूँ.

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