ओमप्रकाश दीपक का लेखन कल्पना का हिन्दी लेखन जगत

वक्त (कहानी 1956)

पान्जिम जेल, गोवा

13 सितंबर 1956

राका प्रिय,

अपना यह नया नाम पढ़ कर तुम्हें अचरज होगा. मगर तुम्हारा असली नाम यहाँ लिखने का साहस नहीं होता. न जाने पत्र किन हाथों में पड़े, तुम तक पहुँचे भी या नहीं, या कुछ और ही न हो जाये.

यह अँधेरी कोठरी है. मगर सौहार्द्र को यह भी दूर न रख सकी. इसीलिए मेरे पास इस समय काग़ज़ कलम हैं, एक दो मित्र हैं जो हो सका तो मेरा पत्र तुम्हें पहुँचा देंगे और तुम्हारा मुझे, और आधे घँटे का समय भी है कि जो चाहूँ इस बीच तुम्हें लिख सकूँ. हाँ यह सब भी हो सकेगा महीने में एक बार ही.

इस कोठरी में समय और दिन रात का ज्ञान अँधेरे की कम या ज्यादा गहराई से होता है. कभी कभी रात को चांदनी की एक झाईं सी भी ज़रा देर के लिए यहाँ झाँक जाती है. जब चल सकता था तो दीवार और फ़र्श पर जहाँ वह मीठा नरम उजाला झलकता होता, वहीं बैठ कर उसे देखा करता और सोचता कि उसी चाँदनी में तुम भी कहीं होगी. और सच मानो, तब लगता कि ये सारे बन्धन व्यर्थ हैं, मैं स्वतंत्र हूँ, तुम्हारे पास ही हूँ.

वह सहारा अब छिन चुका. उस उजाले तक अब चल कर नहीं जा सकता. पाँव और ऊपर तक सूज गये हैं, तलुओं पर शहतूत की छड़ी की मार के बाद बरफ़ के पानी के असर से. लेकिन अब भी मैं क्या कैद हूँ? आँखें मूंदने की देर होती है, यह तमाम बेड़ियाँ और संगीनें, अँधेरे और दीवारें, कुछ नहीं रहता और बस सिर्फ़ तुम मेरे पास होती हो. इस लिए तो यह नया नाम तुम्हें दिया है, राका.

जानती हो इन यातनाओं से मैं कितना डरता था. मगर वह दिन मुझे भूलेगा नहीं जब इन यातनाओं की कल्पना करके और इस भय से कि मेरी दुर्बलता के कारण कहीं साथी लोग न पकड़ें जायें, कांप कांप रहा था और इन पुर्तगालियों की आँख बचते ही तुमने मुस्कुराते हुए मेरे सीने पर हाथ रख कर कहा था, "क्यों? क्या डर लगता है?साहसी वे नहीं होते जिन्हें डर नहीं लगता, वे तो जड़ हैं. साहसी वे हैं जो डर से विचलित नहीं होते, उस पर विजय पाते हैं."

और तुम्हारे ये शब्द ही इस जीवन के लिए मेरा बीजमंत्र बन गये हैं. इसीलिए जब नयी से नयी यातना देने के लिए रोज़ मुझे यह घसीट ले जाते हैं और फ़िर बेहोश यहाँ पटक जाते हैं, तो हर बार लगता है कि शरीर अब और सहन न कर सकेगा, लेकिन सह जाता है और होश आने पर लगा करता है जैसे उस समय भी पीड़ा से काँपती देह पर तुम मुस्कुराती हुई हाथ फेरती कह रही हो, "डरो मत! साहसी वे ही हैं जो डर से विचलित नहीं होते, उस पर विजय पाते हैं."

उस रात को भी गाँव में तुम अचानक ही आ गयी थी. तुम जानती थी कि गाँव को पुर्तगाली पुलिस और पल्टन ने घेर लिया है और वह शायद हमारी अंतिम भेंट है. सभी ने हमारे साथ विश्वासघात किया था, नेताओं ने सबसे अधिक. लोग भय से कायर हो गये थे और सभी समझ रहे थे कि अब संकट आ गया. मुझसे अधिक जानती थीं कि मैं अब नहीं बच सकूँगा, तब भी तुम आयीं थीं, शायद इसीलिए आयीं थीं. और वह रात, मेरी बाहों में निर्झर सी उबलती कामनाओं से कांपती तुम्हारी देह, तुम्हारा वह आत्म समर्पण, उस संजीवन सुख का एक एक क्षण मैं यहाँ फिर फिर जीता हूँ और तब जैसे कायाकल्प हो जाता है, मैं नया हो जाता हूँ. स्मृतियाँ और कल्पना इस काल कोठरी में भी स्वर्ग की सृष्टि कर देती हैं, राका.

एक बात पूँछू? वह आशा भी है, आशंका भी. तुम माँ बनने वाली तो नहीं हो? यह विचार मेरे मन में बार बार आता है. क्या यही हमारे मिलने का साफल्य है? मैं स्वयं कुछ सोच नहीं पाता. तुम स्वतंत्र हो तो क्या, अविवाहित हो. और मेरी सजा पन्द्रह वर्ष की है. जीवित बाहर आ भी सकूँगा या नहीं, इसमें सन्देह है. अविवाहित माँ बन कर कैसे रहोगी? मन का एक कोना कहता है कि तुम्हारे मन में मैं जीवित रहूँगा, लेकिन तुम मेरी प्रतीक्षा मत करो. मैं तुममे जीवित रहूँगा, तुम्हारे सुख में ही मेरी आत्मा की शान्ति है. क्या यह तुम्हारे प्रेम का अपमान है?

एक मन कहता है, हाँ. चाहता है कि मेरा वंश तुम्हारे गर्भ में जीवन पाये, मैं जीवित रहूँ. मन यह भी कहता है कि उस रात शायद इसीलिए मेरे पास आयीं थी कि मुझे जीवित रख सको. मेरे न रहने पर हमारी सन्तान में मुझे पा सको. तुम्हारे साथ यह कैसा अन्याय है? पर क्या सचमुच अन्याय है?

मेरी बातों में क्रम न मिले या तर्क, विवेक, निश्चय न मिले तो मुझे क्षमा करना. क्योंकि यहाँ मेरे जीवन का केवल एक केंद्र है, तुम! तुम अपने आप में भी पर्याप्त हो, लेकिन मन ही मन शायद मैं तुम्हें अपने बच्चे की माँ भी देखना चाहता हूँ. लेकिन मैं क्या कह रहा हूँ, देख तो मैं तुम्हें पंद्रह वर्ष तक नहीं सकूँगा, अगर तब तक जीवित रहा तो भी. यह पत्र व्यवहार भी तभी तक है जब तक पंजिम में हूँ. फ़िर न जाने कहाँ भेजा जाऊँ, या क्या हो.

राका, ओह राका. कैसी प्यास है, कैसी तड़प है, और कैसी तृप्ति, कैसा संतोष है. तुम्हें मेरा बहुत प्यार. जीवित या मृत, केवल तुम्हारा ही, .....

***

पंजिम जेल

.... दिसम्बर

राका मेरी,

मन में शक्ति है, दृढ़ता है, लेकिन शरीर दुर्बल हो चुका. समय, तिथि, रात दिन का भी ज्ञान नहीं रह गया.

बहुत दिन हुए तुम्हारा पत्र मिला था. एक बार पढ़ कर हाथों हाथ वापस कर देना पड़ा था. फिर भी पढ़ सकूँ इसलिए पत्रवाहक से बड़ा अनुरोध किया था कि वह कुछ दिन उसे अपने पास और रखे रहे. लेकिन आसूँ छिपाने की चेष्टा करते हुए उसने वहीं उसे दियासिलाई दिखा दी थी. पत्र रखने में खतरा था.

पत्र की कितनी बातें अब भूल गया हूँ. कुछ भी याद रख पाना यहाँ सम्भव नहीं है. हाँ, इतना याद है कि पत्र में साहस था, सान्त्वना थी, आँसुओं के दाग थे. और तुमने लिखा था कि तुम माँ बनने वाली हो, बनना चाहती हो.

मन के किसी कोने में छिपी हुई दुर्बलता याद दिलाती है कि वे दिन कठिन परीक्षा के थे. मेरी पहली प्रतिक्रिया थी कि यह गलत होगा, तुम्हारे साथ अन्याय होगा. तुम ब्राह्मण कन्या हो, अविवाहिता हो, यह कैसे हो सकेगा? एक असफल, कायर ब्राह्मण की अवैध सन्तान ले कर ही जीवन कैसे काटोगी. मैंने सोचा था कि तुम डाक्टर भी तो हो, तुमसे कहलवाऊँगा कि यह पागलपन न करो. मैं तो असफल व्यक्ति की मौत गया. तुम तो जीवित हो, जीवित रहो. मेरे पीछे तुम भी क्यों मरो. फ़िर साहस नहीं हुआ. तुम्हारा, तुम्हारे प्यार का, तुम्हारे समर्पण का अपमान करने का साहस नहीं कर सका.

इधर मैंने तुम्हारे एक चित्र की कल्पना कर ली हैः नारी की करुणा और मां की गरिमा. और सच कहूँ, तुम्हारा यह रूप न होता, तो मैं अब तक टूट भी गया होता.बल प्रयोग काफ़ी दिनों से बंद है. उसका स्थान एक दूसरी विधी ने ले लिया है. घुप अँधेरे से ये मुझे बहुत तेज़ रोशनी में ले जाते हैं, इतनी तेज़ कि कुछ दिखाई नहीं देता. कुछ ही देर में आँखें जलने लगती हैं, सिर धमकते लगता है, तब ये सवाल पूछना शुरु करते हैं. धीरे से, गरज कर, धमका कर, सान्त्वना और लोभ दे कर. घंटों यह चलता है, और वे घंटे कई कई दिन के बराबर लगते हैं. उस समय मैं अपनी कल्पना का तुम्हारा यह चित्र आँखों के सामने ले आता हूँ और निश्चिंत हो जाता हूँ.

लेकिन बिजली के उन तेज़ बल्बों पर अधिक देर तक तुम्हारा चित्र ठहर नहीं पाता. आँखें आप से आप बंद हो जाती हैं, सिर झुक जाता है. तभी दो मजबूत हाथ पीछे से मुझे झिंझोड़ते हैं और तब तक झिंझोड़ते रहते हैं जब तक कि मेरा सिर सीधा न हो जाये, और आँखें न खुल जायें. उस समय हालत ऐसी नहीं रहती कि कुछ कल्पना भी कर सकूँ. मन ही मन तब दुहराने लगता हूँ, राका, राका, राका. और मन के पीछे के किसी हिस्से में यह बात घूमती रहती है कि तुम माँ बनने वाली हो, तुम माँ बनने वाली हो.

ये लोग बार बार मेरे साथियों के, मित्रों के नाम लेते हैं कि किसी पर भी मेरे चेहरे पर कोई भाव आये और वे उसे पकड़ें. लेकिन तुम्हारे नाम को मैंने अपना कवच बना लिया है. वे कुछ भी बोलते रहें, मैं ग्रहण नहीं करता. तुम्हारे नाम के सिवा और कुछ मुझसे ग्रहण नहीं करा सकते. और अब तो शायद तुम्हारा नाम भी नहीं, क्योंकि मेरे लिए तो तुम्हारा नाम राका है, जो किसी को नहीं मालूम. अगर मालूम भी हो जाये तो इस नाम से तुम्हारा सम्बंध नहीं जोड़ा जा सकता. मैं कितना चतुर हो गया हूँ.

एक बड़ा सहारा मिल गया है. मनुष्य भी कैसा विचित्र जीव है. ये जो इतने क्रूर हैं, इन्होंने ही मुझे बाइबल पढ़ने को दी है. ईसा के अनुयायी हैं न. सूर्य का उजाला जैसे ही कोठरी में आता है मैं बाइबल ले कर बैठ जाता हूँ और जितनी देर प्रकाश रहता है, पढ़ता रहता हूँ.

कुछ दिन हुए एक विचित्र सी घटना हुई. मैं न्यू टेस्टामेंट की एक कथा पढ़ रहा था. वह व्याभिचारिणी थी. और पंचायत ने उसे दण्ड दिया था कि सारे गाँव के लोग उसे पत्थरों से मार डालें. दण्ड के समय सभी उसे घेर कर खड़े हो गये. और तभी ईसा ने कहा कि हाँ यह अपराधिनी अवश्य है, लेकिन जो अपने मन में ईश्वर की शपथ ले कर यह समझे कि वह पूर्णतः पापरहित है, वही उसे पहिला पत्थर मारे. किसी को साहस नहीं हुआ. इस विश्व में पापरहित कौन है?

तभी मुझे शायद नींद आ गयी. मुझे लगा कि मैं पत्थरों की गुफ़ा जैसे कमरे में हूँ और सामने एक बड़ी सुन्दर प्रौढ़ा बैठी है जिसकी आँखौं में असीम करुणा है जैसे विश्व की सारी पीड़ा उन्ही में समा गयी हो. और तभी एक युवती आ कर उसके घुटनों से लिपट गयी, "हाँ, ओ मां, यह क्या हुआ? प्रभु कहाँ गये? मुझ पापिनी की अब शरण कहाँ है?" प्रौढ़ा का मुख विचलित न हुआ, युवती के बालों पर फिरती हुई उँगलियाँ नहीं काँपी, लेकिन हृदय की पीड़ा आँखों से बह निकली. "शान्त हो बेटी, शान्त रह. वह परमपिता से मिलने गया. उसने जानबूझ कर मृत्यु स्वीकार की कि मनुष्य जीवित रहे. विचलित हो कर उसके बलिदान का अपमान न कर."

युवती उसके घुटनों में सिर छिपाये कांपती रही, हिचकियाँ लेती रहीं, जैसे मन, जीवित रहने के विरुद्ध विद्रोह कर रहा हो, जैसे यह मृत्यु की यातना के कम्पन हों, जैसे वह अभी स्थिर जड़ हो जायेगी. प्रौढ़ा के आँसू थम गये, उँगलियाँ युवती के बालों में फिरती रहीं और वह धीरे धीरे बोली, "अपने मन की पीड़ा मैंने कभी नहीं कही, कोई नहीं समझेगा. तू शायद समझे, तूने ईसा को प्यार किया है. उसने भी तुझे स्नेह दिया था. तू समझेगी कि मैं कैसी रिक्त हो गयी हूँ. कितने दिनों से मैं और कुछ भी तो नहीं रही, केवल ईसा की माँ. वही मेरी पूर्णता थी, वही मेरी सार्थकता थी."

"वे दिन, जब मैं किशोरी थी और मां बनने वाली थी, तब की वह लांछना, वह तिरस्कार. किंतु मुझे कुछ भी विचलित नहीं कर सका. यह अनुभव कि मैं मां बनने वाली हूँ, पर्याप्त था. फिर विवाह और निर्वासन और दर दर भटकना, मुझे कुछ नहीं लगा. मेरा विश्व मेरी गोद में था. फिर इन पर्वतों और घाटियों में नदी नालों, पशु पक्षियों में, मनुष्य की पीड़ा में, दुख में एकात्म हो गया, मरियम का पुत्र ईश्वर पुत्र बन गया. तब भी मैं सुखी थी, ईसा जैसे पुत्र से कृतार्थ थी. वह अब भी अपनी पीड़ा में, अपने बलिदान में, अपनी करुणा में जीवित है, किंतु मैं रिक्त हो गयी, मैं मृत हूँ. ईश्वर पुत्र अमर है. किंतु मरियम की गोद सूनी है. मेरी व्यथा कौन समझेगा? उसकी आखों से आँसू झर झर बह निकले.

युवती का कम्पन बंद हो गया था. अस्फुट स्वरों में उसके मुँह से इतना ही निकला, "मां, ओ मां."

और धुँधला सा यह चित्र मेरे मन पर देर तक छाया रहा. फिर अँधेरा और शान्ति. अचानक चौंक कर जब मैं उठा तो प्रकाश जा चुका था. स्वप्न एक बार मेरी स्मृति में घूम गया तो मैंने कुमारी माता और मेग्डैलिन को देखा. मेग्डैलिन, जो वेश्या थी और ईसा के स्पर्श से पवित्र हो कर जिसने प्रमाणित किया था कि वैश्या और संत में अधिक अंतर नहीं होता.

तब से मन में न जाने कैसे तुम और मेग्डैलिन और कुमारी माता सब एक हो गयीं हैं. कुछ और भी आकृतियाँ हैं, अस्पष्ट धुँधली सी. मन की विचित्र सी स्थिति है. विचार और तर्क की शक्ति जो बची है, कहती है कि ये सब मेरे अवचेतन की भावनाएँ हैं जो विशिष्ट परिस्थितियों के कारण उभर रही हैं. किंतु एक और विचित्र विचार मन में उठने लगा है.

मैं सोचता हूँ कि ये पीड़ाएँ, ये द्वन्द्व, भय, कष्ट, सब समय से बंधे होने के कारण ही तो हैं. समय का प्रत्येक क्षण नश्वर भी है अमर भी. भौटिकता में नश्वर है, आत्मा में अमर. मनुष्य अगर कहीं क्षण के अमरत्व को पकड़ पावे. समय को बाँध ले, किसी एक क्षण को पकड़ कर बैठ जाये, उसी में अपने जीवन को केंद्रित कर ले, फिर तो वह मुक्त हो जाये.

तुम्हें यह सब पागलपन लगेगा. किंतु अगर यह पागलपन न हो, तो वास्तव में होश खो बैठूँ. मैं होश में रहूँ, इसलिए शायद मन की इच्छाएँ मर गयी हैं. केवल एक बची हैः कि तुम मेरे बच्चे की मां बनी. वह भी तो मेरी मुक्ति, मेरा अमरत्व है.

तुम्हें बहुत बहुत प्यार. क्या तुम समझोगी कि मैं तुम्हें कितना प्यार करता हूँ, उतना जितना किसी पुरुष के लिए स्त्री को करना सम्भव है.

तुम्हारा ही ....

***

राका रानी,

कई दिनों बाद, शायद पंद्रह या दस ही दिन बाद, थोड़ी देर पहले सोया था. अभी अभी मित्रों ने सन्देश कहलवाया था कि चौबीस घण्टे के अंदर से यहाँ से हटा दिया जाऊँगा. शायद वे मुझे अफ्रीका भेज रहे हैं. तुम्हें पत्र लिखने का यह अंतिम अवसर है. तुम्हारे प्यार में ही इस समय शक्ति है कि मुझे जगाये रख सके, मेरे जड़ स्नायुओं को बाध्य करे कि उनमें गति आये, मेरे दिमाग को मजबूर करे कि वह सोचे. पर क्या सोचें?

तुम्हें पिछला पत्र भेजे बहुत दिन नहीं हुए, क्योंकि इतना याद है कि तुम्हें लिखने के तीसरे दिन ही तो यातना का यह नया दौर शुरु हुआ था कि मुझे बहुत तेज़ रोशनी के नीचे खड़ा कर दिया जाता, चारों और भी बहुत तेज़ रोशनी रहती, दोनों हाथों में हथकड़ियाँ होतीं जिनकी ज़ंज़ीर पकड़े दो आदमी खड़े रहते. आदमी थोड़ी थोड़ी देर बाद बदल जाते थे, मैं वैसे ही खड़ा रहता था. अगर आँख झपकती तो झटका लगता, सिर झुकता तो झटका लगता, पैर काँपते तो झटका लगता. न जाने वे क्या चाहते थे, क्योंकि किसी ने कुछ पूछा नहीं, किसी ने कुछ कहा नहीं. किंतु तब से ही शरीर और चेतना जिस स्थिति में हैं उसे शब्द नहीं दे सकता, शायद दिये भी नहीं जा सकते.

जिस दिन से यह क्रम शुरु हुआ, ये मुझे रोज़ नहलाते थे. नहाने से कुछ ताज़गी आती, कुछ ठँड आती, पर नींद भी आती और झटके और भी जोर जोर से लगते. पीड़ा दिनोदिन असह्य होती जाती.

नहाने के बाद कुछ देर इस जीवन के विरुद्ध प्रतिक्रिया होती. पर फ़िर तुम्हारी याद आती और मन पर वही पागलपन सवार होता कि जिस क्षण मन पर तुम्हारी याद छाती है, काश मैं उसी क्षण को पकड़ कर बैठ सकूँ. अन्त में मैंने तय कर लिया कि कितने भी झटके लगें मैं आँख नहीं खोलूँगा, और मन में तुम्हें बिठाये पकड़े रहूँगा. आरम्भ में नहीं कर पाया. जोर से झटके लगते तो आँख खुल जाती, तुम ओझल हो जाती. शरीर में इस तरह आग जलने लगी कि नाक से खून बहने लगा. शायद यह देख कर ही मुझे लगा कि अगर अब नहीं कर पाया तो फ़िर कर भी नहीं पाऊँगा. और निर्णय करके कि चाहे प्राण चले जायें, आँख नहीं खोलूँगा, मैंने आँख बंद कर लीं. वे झटके देते रहे और मैं कोशिश करता रहा कि ध्यान तुम पर केंद्रित रखूँ. इन्द्रियाँ चेतनाशून्य हो गयीं लेकिन शायद मैं बेहोश नहीं हुआ, क्योंकि बेहोश होता तो फिर कुछ याद कैसे रहता?

कुछ देर तुम सामने रहीं. लगता था जैसे बरसों बीत गये हों, लेकिन वास्तव में शायद कुछ ही देर तुम सामने रहीं. फिर मन पर शून्य सा छा गया. लगा जैसे समय, स्थान सब कुछ लोप हो गया हो. उसे पूर्ण गति भी कह सकता हूँ और पूर्ण स्थिरता भी. फिर जैसे किसी धुंध में कुछ छायायें सी उभरने लगीं. पहले गंध आयी, मछली की, ऐसी कि सिर फटने लगा. फिर नारी की देह की, कोमल मादक. ओह, वह गंध क्या कभी भूल सकता हूँ! क्योंकि वह तुम्हारी देह थी, तुम्हारी गंध थी. लेकिन तुम्हारी आकृति नहीं थी. और तभी उस धुंध में आग लग गयी, और राख, जैसे राख की आँधी और उसके बीच एक स्त्री की चीत्कार, जैसे किसी विधवा का एकलौता पुत्र मर गया हो. और उसका अनर्गल प्रलाप, "मैं खा गयी सबको, मैं खा गयी. योगीराज, निषाद कन्या की महत्वाकांक्षा से तुम भी नहीं बचा सके किसी को?"

मुझे लगा मेरे सामने कोई भयानक नाटक होने जा रहा हो. भय के मारे जी हुआ कि तुम्हें पुकारुँ, तुम्हारे कोमल प्रकृत शरीर को छुऊँ. तभी शायद झटके लगने बंद हो गये, क्योंकि मन को एक झटका सा लगा, तुम्हारी मुस्कुराती सी आकृति सामने आयी, फिर इन्द्रियों में कुछ चेतना आयी वे मुझे इस कोठरी में वापस डाल रहे थे.

आँखे खोले रखना, अपने को होश में रखना बहुत कठिन हो रहा है राका, लेकिन कुछ और कहना चाहता हूँ, यह पत्र पूरा कर देना चाहता हूँ.

समय को बाँधने की मेरी चेष्टा असफल हुई. शायद यह विचार ही मूर्खतापूर्ण है. शायद मेरा तरीका गलत है. तन्द्रा में हर बार मन किसी एक क्षण पर स्थिर होने के बजाय पीछे चला गया. पहिली बार को हज़ार वर्ष पीछे, दूसरी बार उसके भी दो हज़ार वर्ष पीछे.

इसका कुछ महत्व भी है, या यह केवल मेरी मानसिक विकृतियों का परिणाम था, यह नहीं कह सकता. क्योंकि मिरियम, मेग्डैलिन, मत्स्यगंधा, ये सभी नारियाँ ऐसी हैं जिन्होंने आरम्भ से ही मुझे आकर्षित किया है. मत्स्यगंधा जिसने चंद्र वंश की रक्षा के लिए इतने यत्न किये, लेकिन सब निष्फल. मत्स्यगंधा जिनके लावण्य पर पराशर ने मुग्ध हो कर उसे अनन्त यौवन का वरदान दिया था, जिससे वेदव्यास का जन्म हुआ था, वेदव्यास जो भारतीय सभ्यता के पतन के इतिहासकार बने थे. कौन कह सकता है कि किशोरी मत्स्यगंधा ने पराशर को किस प्रकार, किस रूप में स्वीकार किया था. जो महत्वाकांक्षा चंद्रवंश को ले डूबी, वह किसकी थी, निषदराज की या उसकी पुत्री की? सत्यवति और शाँतनु का विवाह चंद्रवंशी साम्राजय के पतन का प्रतीक था. सत्यवती ने उसे बचाने की बहुत चेष्टा की, भीष्म की प्रतिज्ञा तुड़वानी चाही, अनुनय विनय करके अपने ज्येष्ठ पुत्र से नियोग करवा कर अपनी विधवा पुत्रवधुओं को पुत्रवती बनाया, फिर भी धृतराष्ट् अन्धे हुए और पाँडव पीतरोग से पीड़ित. निषाद कन्या पराशर की प्रेयसी बन गयी थी, काशिराज की पुत्रियाँ द्वैपायन की दुरूपता सहन नहीं कर सकीं और भीष्म से प्रणय याचना के बदले तिरस्कार पाने वाली जम्बा ने शिव से उनकी मृत्यु का वर ले लिया. सत्यवती चंद्रवंश की रक्षा नहीं कर सकी. समय ने उसकी आकृति धुँधली कर दी है, पर कैसी रही होगी वह स्त्री?

अपनी तन्द्रा में उसे मैंने आत्मग्लानी से पूर्ण क्यों देखा, मैं नहीं जानता. मेरे मन में मत्स्यगंधा, मरियम और तुम्हारी आकृतियाँ चार हज़ार वर्षों की सीमाएँ तोड़ कर एक सूत्र में क्यों बँध गयी हैं, यह भी मैं नहीं जानता. क्या इसी कारण से कि वे कुमारी माताएं थीं और तुम भी कुमारी माता हो?

शायद यह अंतिम अवसर है कि मेरे चेतन विचार तुम तक पहुँच पायेंगे. इसलिए आज तुमसे कहना चाहता हूँ कि मेरे अनुभवों के पीछे चाहे जो हो, मेरी मानसिक विकृतियाँ चाहे जो हों, मैं नहीं चाहता कि तुम मिरयम बनो, मैं नहीं चाहता कि तुम मत्स्यगंधा बनो. मैं नहीं चाहता कि हमारा पुत्र ... पुत्री क्यों नहीं? पर ख़ैर, मैं नहीं चाहता कि हमारी सन्तान किसी साम्राजय का निर्माण करे या उसकी रक्षक बने. मैं यह भी नहीं चाहता कि हमारी सन्तान किसी महान धर्म को जन्म दे. मैं देश का सम्मान चाहता हूँ, मैं मानवी करुणा चाहता हूँ, किंतु मैं कुछ और भी चाहता हूँ. मैं चाहता हूँ एक विश्व जिसमें समता हो, भौतिक और आध्यात्मिक दोनों ही. मैं चाहता हूँ एक नये मनुष्य का जन्म जो न क्रूर अन्यायी हो, न अन्यायों को सह लेने वाला कायर. जिसमें मनुष्य का साधारण साहस हो. मैं चाहता हूँ तुम उस मनुष्य को जन्म दो.

पर आदमी के चाहने से क्या होता है. मां के चाहने से शायद कुछ होता है, पर सब कुछ नहीं. फिर भी चेष्टा करना. करोगी राका? मुझे लगता है कि मेरे जीवन की, तुम्हारे मातृत्व की इसी में सार्थकता है. यह चेष्टा, यह जान कर भी कि इसकी सफलता शायद अभी असम्भव है.

तुम्हें मेरा बहुत बहुत प्यार. प्यार तो मैं तुम्हें जीवन के प्रत्येक क्षण में करता रहूँगा, किंतु शायद यह अंतिम बार है कि मेरे यह शब्द अपने व्यक्त रुप में तुम तक पहुँच पायेंगे. समय को बाँध पाना भी तो मेरे लिए असम्भव है. और लिखने की शक्ति भी नहीं है.

तुम्हें एक बार फिर मेरा बहुत बहुत प्यार .....

तुम्हारा ही ......

***

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